सुनीता कम्बोज प्रकाशित कृतियाँ : 1. अनभूति (काव्य-संग्रह), 2. किनारे बोलते हैं (ग़ज़ल-संग्रह), 3. हर बात गुलाबी है (माहिया छंद संग्रह), 4. महकी भोर (हाइकु, ताँका, चोका, सेदोका, क्षणिका संग्रह) 5. चलना तेरी ओर(गीत संग्रह) 6. हाइगा-कृति(हाइगा-संग्रह)7. लाल गुब्बारा(शिशुगीत संग्रह) 8. छुपन-छुपाई(बालगीत संग्रह) 8, बाल मन की उड़ान (बालगीत संग्रह) राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में रचनाओं का अनवरत प्रकाशन । देश की विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित ।
Thursday, August 30, 2018
Wednesday, August 29, 2018
समय की पगडंडियों पर(गीत संग्रह) पर समीक्षा
कवि-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
विधा-गीत
कृति - समय की पगडंडियों पर(गीत संग्रह)
मूल्य-₹ 200:00
पृष्ठ संख्या-112
पहला संस्मरण -2018
प्रकाशन- राजस्थानी ग्रन्थागार
प्रथम माला,गणेश मंदिर के पास
सोजती गेट,जोधपुर(राजस्थान)
सम्पर्क-0291-2657531
समीक्षक - सुनीता काम्बोज
गीतों में संवेदनाओं की महक
गीत का फलक विस्तृत है । साहित्य की सबसे प्राचीन विधा होने के साथ- साथ आज भी गीत मानवीय हृदय के सबसे नजदीक है । गीत विधा की परंपरा को विस्तार देता एक गीत संग्रह "समय की पगडंडियों पर " चलते हुए अनेक इंद्रधनुषी अनुभव समेट कर साहित्य अनुरागियों के लिए उत्कृष्ट गीतों का गुलदस्ता लेकर आया है।
प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी द्वारा रचित गीत संग्रह"समय की पगडंडियों पर" पढ़ने का सुंदर सुयोग बना । इस संग्रह के गीतों एवं नवगीतों में समाहित माधुर्य ,गाम्भीर्य, अभिनव कल्पना, सहज,सरल भाषाशैली, गेयता की अविरल धार, हृदयतल को अपनी मनोरम सुगन्ध से भर गई। बाल साहित्य,कुण्डलिया छंद व अनेक काव्य विधाओं में अपनी लेखनी का लोहा मनवाने वाले वरिष्ठ साहित्यकार श्री ठकुरेला जी ने बड़ी संजीदगी से अपनी गहन अनुभूतियों को गीतों में उतारा है । इन गीतों में कभी शृंगार की झलक दिखाई देती है तो कभी जीवन दर्शन । कभी देश प्रेम का रंग हिलोर लेता है तो कभी सामाजिक विसंगतियाँ।
बड़ी खूबसूरती से गीतों में छंद परम्परा का निर्वाह किया गया है। प्रबल भाव, सधा शिल्प सौष्ठव । हर दृष्टिकोण से इस संग्रह के गीत भाव एवं कला पक्ष की कसौटी पर कसे हुए हैं। " करघा व्यर्थ हुआ कबीर" इस गीत में कवि ने बदलते परिवेश एवं आधुनिक जीवन शैली की और इशारा करके प्रतीतात्मक शैली का प्रयोग किया है।नवगीतों में अदभुत प्रयोग देखते ही बनता है।
करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया
काशी में नंगों का बहुमत
अब चादर की किसे जरूरत
सिर धुन रहे कबीर
रुई का
धुनना छोड़ दिया
बेरोजगार शिल्पकारों और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य का सजीवचित्रण करते हुए कवि अपनी वेदना व्यक्त करता है। गुजरे जमाने का स्मरण करते हुए कवि पाषाण बनती जा रही मानवीय संवेदना देख व्याकुल है। कवि मन कहता है कि अब सामाजिक मूल्यों का कोई मोल नहीं क्योंकि लोग काँच को ही मोती समझ रहे हैं।एक अन्य गीत गीत "बिटिया" के माध्यम से कवि ने मन के अहसास को शब्द देकर नारी शोषण पर करारा प्रहार किया है ।
बिटिया ।
जरा संभल कर जाना
लोग छिपाए रहते खंज़र
गाँव, शहर
अब नहीं सुरक्षित
दोनों आग उगलते
कहीं कहीं तेजाब बरसता
कवि का कोमल मन समय का दर्पण देख गीत के माध्यम से बिटिया की पीड़ा को शब्द देकर कह रहा है कि अब वह कहीं भी सुरक्षित नहीं। तेजाब कांड के प्रति रोष जताते हुए कवि ने पथभ्रष्ट युवाओं को काँटे दार वृक्ष की संज्ञा दी है। ठूठ होते संस्कारों से सावधान करता हुआ कवि हृदय बेटियों के साथ होती दुखद घटनाओं से आतंकित हैं।
आखिर कब तक
चुप बैठेंगे
चलों वर्जनाओं को तोड़ें
जाति, धर्म,भाषा में
उलझे
सबके चेहरे बंटे हुए हैं
व्यर्थ फँसे हुए हैं
चर्चाओं में
मूल बात से कटे हुए हैं
आओ बिखरे संवादों की
कड़ियाँ कड़ियाँ फिर से जोड़ें।
"कड़ियाँ फिर से जोड़ें" आशा से भरा यह नवगीत इस बात का परिचायक है कि कवि आज भी लहरों में भटकी कश्तियों के किनारे पर आने की आशा रखता है। आज कवि आवाज दे रहा है कि जात-पात, धर्म, भाषा से ऊपर उठकर हम नए भारत का निर्माण करें। इसके अलावा हरसिंगार रखो, अर्थ वृक्ष,मन उपवन, मिट्टी के दीप, बदलते मौसम, सुनों व्याघ्र आदि गीतों एवं नवगीतों का काव्य सौन्दर्य सराहनीय है।
आँखें फाडे
खड़े हुए हैं
राजमहल के आगे
शायद राजा जागे ।
इस नवगीत के मुखड़े से ही इसकी सारी खूबसूरती प्रकट हो जाती हैं । राजनीतिक तानशाही के प्रति विद्रोह के तीव्र स्वर जब विस्फुटित होते है तब मन मे दबा आक्रोश जगजाहिर हो जाता है। शासक कुम्भकरणी निद्रा के वशीभूत है। राजनीतिक दल अपने अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे हैं। कवि के मन मे सुलगती चिंगारी अब गीत का रूप लेकर प्रज्वलित हुई है।
जब मन उद्वेलित होता है तब प्रेम की सरस, मधुर बूँदे हृदय को शीतलता प्रदान करती हैं।
शृंगार रस के गीतों में कवि का प्रियतम के प्रति समर्पण भाव का परिचय मिलता है।
मैं अपना मन मन्दिर करलूँ
उस मंदिर में तुम्हें बिठाऊँ।
वंदन करता रहूँ रात-दिन
नित गुणगान तुम्हारा गाऊँ।
गीतों में कहीं प्रेम की पराकाष्ठा तो कभी विरह की कठिन घड़ियाँ ।
कवि "दिन बहुरंगे", गीत के द्वारा स्वार्थ की नींव पर टिके रिश्तों की तस्वीर दिखलाता है तो कभी पिता के विशाल चरित्र को शब्दों में ढालने का सफल प्रयास करता है। यह संग्रह में 82 गीतों की माला है माला के हर मोती की आभा अनोखी है । जड़ों से जुड़ी भावनाओं से रचे गए गीतमन के तार छूने में सक्षम हैं ।" समय की पगडण्डियों पर" गीत संग्रह का प्रकाशन "राजस्थान साहित्य अकादमी,उदयपुर "के आर्थिक सहयोग से होना सुखद है ।
यह पुस्तक पढ़ना अत्यंत सुखद रहा । श्री ठकुरेला जी पेशे से इंजीनियर हैं। अनेक पुस्तकों के सम्पादन कर चुके हैं । उनके तीन एकल संग्रह प्रकाशित हैं । मुझे विश्वास है यह गीत संग्रह पाठक वर्ग में अपना उच्च स्थान बनाएगा आशा करती हूँ शीघ्र उनकी अन्य कृतियों से हमें रूबरू होने का अवसर मिलेगा।
अंत मे मैं श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी के उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूँ । हार्दिक बधाई एवं मंगलकामनाएँ ।
सुनीता काम्बोज
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Saturday, August 25, 2018
राखी का है त्योहार ..26 अगस्त 2018
सादर प्रणाम मित्रों....आप सबको रक्षाबंधन पर्व की हार्दिक बधाई एवं मंगलकामनाएँ । 🙏🙏🌺🌺🌺🌺🌺🌺
गीत
राखी का है त्योहार रे,मेरे भैया न आए
कर दी क्यों इतनी वार रे, मेरे भैया न आए
द्वारे खड़ी तेरी राहें तकूँ रे
हूँ दूर पर तेरे मन मे बसूँ रे
मुझसे किया था करार रे, मेरे भैया न आए
राखी--
थी आस आने की मन मे पिरोई
रोके रुकी न ये आँखे भी रोई
रोए ये राखी के तार रे,मेरे भैया न आए
राखी...
भैया तुम्हारी ये सूनी कलाई
बहना से आकर न राखी बधाई
लेकर वो भाभी का प्यार रे, मेरे भैया न आए
राखी..
सुनीता काम्बोज
राखी का है त्योहार रे,मेरे भैया न आए
कर दी क्यों इतनी वार रे, मेरे भैया न आए
द्वारे खड़ी तेरी राहें तकूँ रे
हूँ दूर पर तेरे मन मे बसूँ रे
मुझसे किया था करार रे, मेरे भैया न आए
राखी--
थी आस आने की मन मे पिरोई
रोके रुकी न ये आँखे भी रोई
रोए ये राखी के तार रे,मेरे भैया न आए
राखी...
भैया तुम्हारी ये सूनी कलाई
बहना से आकर न राखी बधाई
लेकर वो भाभी का प्यार रे, मेरे भैया न आए
राखी..
सुनीता काम्बोज
राखी का है त्योहार ..24 अगस्त 2018
सबको रक्षाबंधन पर्व की हार्दिक बधाई एवं मंगलकामनाएँ🙏🙏🙏🙏🌷🌷 । 🙏🙏🌺🌺🌺🌺🌺🌺
गीत
राखी का है त्योहार रे,मेरे भैया न आए
कर दी क्यों इतनी वार रे, मेरे भैया न आए
द्वारे खड़ी तेरी राहें तकूँ रे
हूँ दूर पर तेरे मन मे बसूँ रे
मुझसे किया था करार रे, मेरे भैया न आए
राखी--
थी आस आने की मन मे पिरोई
रोके रुकी न ये आँखे भी रोई
रोए ये राखी के तार रे,मेरे भैया न आए
राखी...
भैया तुम्हारी ये सूनी कलाई
बहना से आकर न राखी बधाई
लेकर वो भाभी का प्यार रे, मेरे भैया न आए
राखी..
सुनीता काम्बोज
राखी का है त्योहार रे,मेरे भैया न आए
कर दी क्यों इतनी वार रे, मेरे भैया न आए
द्वारे खड़ी तेरी राहें तकूँ रे
हूँ दूर पर तेरे मन मे बसूँ रे
मुझसे किया था करार रे, मेरे भैया न आए
राखी--
थी आस आने की मन मे पिरोई
रोके रुकी न ये आँखे भी रोई
रोए ये राखी के तार रे,मेरे भैया न आए
राखी...
भैया तुम्हारी ये सूनी कलाई
बहना से आकर न राखी बधाई
लेकर वो भाभी का प्यार रे, मेरे भैया न आए
राखी..
सुनीता काम्बोज
Friday, August 24, 2018
हाइकु ..अटल जी को समर्पित
आदरणीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी को शत -शत नमन ...अश्रुपूरित श्रद्धांजलि 🙏🙏🙏🙏🙏।
हाइकु
1
अटल जी हैं
यूँ बेदाग चरित्र
मन पवित्र ।
2.
अंतिम यात्रा
करते हैं नमन
आँखियाँ नम।
3
वो स्वाभिमानी
छोड़ गया फिर से
आज निशानी।
4
अटल कवि
अटल देशप्रेमी
अटल सोच ।
5
वो रोप गये
नए बाग बगीचे
खून से सींचे।
सुनीता काम्बोज
हाइकु
1
अटल जी हैं
यूँ बेदाग चरित्र
मन पवित्र ।
2.
अंतिम यात्रा
करते हैं नमन
आँखियाँ नम।
3
वो स्वाभिमानी
छोड़ गया फिर से
आज निशानी।
4
अटल कवि
अटल देशप्रेमी
अटल सोच ।
5
वो रोप गये
नए बाग बगीचे
खून से सींचे।
सुनीता काम्बोज
Tuesday, August 14, 2018
स्वतंत्रता दिवस 2018 के अवसर पर एक गीत..जय हो
समस्त देशवासियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ
आज खून से धोकर अपने ,सारे दाग मिटा देंगे
कश्मीरी घाटी को फिर से, फूलों से महका देंगे
कश्मीरी घाटी को फिर से, फूलों से महका देंगे
इसकी बड़ी पुरातन गाथा , शायद तुमको ज्ञान नहीं
मिट जाएँगे गलत इरादे, मिटता हिन्दुस्तान नहीं
कितनी है औकात तुम्हारी, तुमको भी बतला देंगे
आज---
वो दिन जल्दी आएगा जब, हर इक मुद्दा हल होगा
थोड़ा धीरज धर ले मनवा,उज्ज्वल सा ये कल होगा
सत्य अहिंसा प्रेम समर्पण, का फिर दीप जला देंगे
आज --
कागज की कश्ती में बैठे, सागर को ललकार रहे
कभी सामने आकर देखो , कर पीछे से वार रहे
ये झूठा अभिमान तोड़ कर , तुमको धूल चटा देंगे
आज--
सुनीता काम्बोज
मिट जाएँगे गलत इरादे, मिटता हिन्दुस्तान नहीं
कितनी है औकात तुम्हारी, तुमको भी बतला देंगे
आज---
वो दिन जल्दी आएगा जब, हर इक मुद्दा हल होगा
थोड़ा धीरज धर ले मनवा,उज्ज्वल सा ये कल होगा
सत्य अहिंसा प्रेम समर्पण, का फिर दीप जला देंगे
आज --
कागज की कश्ती में बैठे, सागर को ललकार रहे
कभी सामने आकर देखो , कर पीछे से वार रहे
ये झूठा अभिमान तोड़ कर , तुमको धूल चटा देंगे
आज--
सुनीता काम्बोज
(चित्र गूगल से साभार)
Sunday, August 12, 2018
तीज का गीत
सुनीता काम्बोज
सूनी - सूनी लगती है
तीज की बहार
आकर सखियाँ झूला झूले
डाली रही पुकार
कोई कजरी गीत सुना दी
अमुवा रहा निहार
सूनी-सूनी--
गुमसुम सा है आँगन सारा
ना महके घर द्वार
ना हाथों में चूड़ी खनके
ना सोलह शृंगार
सूनी- सूनी---
ढूँढे अखियाँ छन - छन पायल
चुनरी घोटेदार
सखियाँ की चंचलता में वो
मीठी सी तकरार
सूनी-सूनी---
छीन लिया है किसने सब कुछ
मन में करूँ विचार
आधुनिकता ने निगला सब
करके तीखा वार
सूनी-सूनी--
सुनीता काम्बोज
(चित्र गूगल से साभार)
सूनी - सूनी लगती है
तीज की बहार
आकर सखियाँ झूला झूले
डाली रही पुकार
कोई कजरी गीत सुना दी
अमुवा रहा निहार
सूनी-सूनी--
गुमसुम सा है आँगन सारा
ना महके घर द्वार
ना हाथों में चूड़ी खनके
ना सोलह शृंगार
सूनी- सूनी---
ढूँढे अखियाँ छन - छन पायल
चुनरी घोटेदार
सखियाँ की चंचलता में वो
मीठी सी तकरार
सूनी-सूनी---
छीन लिया है किसने सब कुछ
मन में करूँ विचार
आधुनिकता ने निगला सब
करके तीखा वार
सूनी-सूनी--
सुनीता काम्बोज
(चित्र गूगल से साभार)
Thursday, August 2, 2018
उठने लगे सवाल (दोहा संग्रह) पर समीक्षा
कवि – श्री राजपाल सिंह गुलिया
विधा –दोहा छंद
मूल्य- 200.00 रुपये
पृष्ठ संख्या -96
प्रथम संस्मरण -2018
प्रकाशक – अयन प्रकाशक ,1/2 महरौली, नई दिल्ली – 110 030
दूरभाष – 981898861
समीक्षक –सुनीता काम्बोज
अनुभूतियों की यात्रा
बहुआयामी प्रतिभा के धनी श्री राजपाल सिंह गुलिया जी ,साहित्य की विविध विधाओं में अनवरत लिख रहे हैं । अनेक पत्र -पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के माध्यम से उनके छंदों, बालगीतों एवं ग़ज़लों ने जनमानस के पटल पर एक प्रभावी स्थान बनाया है । हिंदी के साथ -साथ हरयाणवी भाषा के प्रति उनका प्रेम एवं समर्पण सराहनीय है। श्री राजपाल सिंह गुलिया जी की साहित्यिक यात्रा का पहला स्तम्भ , उनका पहला दोहा संग्रह “उठने लगे सवाल" अपने शीर्षक को सार्थक करता है । पुस्तक पढ़कर गुलिया जी का समस्त व्यक्तित्व हमारे सामने उभर जाता है। यह दोहा-संग्रह कवि के गहन चिंतन और अनुभूतियों का धाराप्रवाह प्रकटन है | एक सुयोग्य शिक्षक की भूमिका में गुलिया जी राष्ट्रीय निर्माण के साथ - साथ साहित्य के उन्नयन में भी अहम भूमिका अदा कर रहे हैं । साहित्य के अमृत से अपनी सांस्कृतिक जड़ों को सींचकर कवि ने अपनी धरोहर और मर्यादाओं का संरक्षण किया है | कवि ने मन में उठते सवालों को शब्द देकर जो दोहे रचे वह पाठक के अन्तरतल पर अपनी मधुर सुगन्ध छोड़ जाते हैं। साहित्यिक सागर में भावपक्ष अगर नौका है तो शिल्प पक्ष पतवार की तरह है,एक के बिना भी यात्री पार जाने में अक्षम है । यह दोहा-संग्रह शिल्प और भावपक्ष के सारभूत और व्यापक दृष्टिकोण के कारण कवि राजपाल सिंह गुलिया जी को उच्च श्रेणी के दोहाकारों की श्रेणी में लाकर खड़ा करता है । श्री राजपाल सिंह गुलिया जी का खेतों और गाँव से लगाव , देश के प्रति निष्ठा और प्रेम, सियासतदारों के प्रति आक्रोश ,बदलते परिवेश के प्रति चिंता , संकीर्ण सोच, आज का मानवता का गिरता स्तर,प्रकृति दोहन, दार्शनिक दृष्टि, बढ़ते हथियार ,अवसरवाद, असमानता ,सामाजिक विसंगतियों आदि पहलुओं को छूकर लेखनी चलाई है
आज का अतृप्त मानव अपने सुखों को देखने की बजाय दूसरों की गागर का अनुमान लगाने में उलझा रहता है ,समाज में दिखावे के बढ़ते संक्रमण के कारण मानव स्वयं के दोषों को अनदेखा कर औरों के अवगुण गिनने में लगा है । कवि ने मानव के बदलते मिजाज और दिखावे के अंदाज को बयाँ किया है । मानव की इस सोच पर व्यंग करते हुए यह दोहे सब कुछ कह जाते हैं
धीरज उसमें धर सखे, जो है तेरे पास ।
देख गगरिया गैर की ,बढ़ा रहा क्यों प्यास
सूप पड़ा चुपचाप अब, समझ न आया भेद।
छलनी बढ़-चढ़ बोलती, जिसमें, अनगिन छेद ।।
गुलिया जी के सन्देशप्रद दोहे, जीवन की पगडंडी से भटकते मानव को आवाज दे रहे हैं । जिस प्रकार कबीर जी , रहीम जी और बिहारी जी के दोहे ने सामजिक ,धार्मिक ,राजनैतिक आडम्बरों पर चोट की है उसी प्रकार गुलिया जी ने अनेक ज्वलंत मुद्दों को बड़ी निर्भीकता से ललकारा है कुछ दोहे खुद में कई गूढ़ अर्थ समेटे हुए चमत्कृत कर उठते हैं
बानगी के तौर पर कुछ दोहे -
लोग रहे सब तापते, जब तक जला अलाव।
फिर उस ठंडी राख से, रखता कौन लगाव।।
खुरपे की जब से सखे ,कुंद हुई है धार।
बगिया में बढ़ने लगा, तब से खतपतवार ।।
कवि मन जनमानस की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझता है । जब कवि का कोमल हृदय किसी असहज घटना से आहत हो जाता है तब अनायास ही उसके भाव कविता,छंद,या ग़ज़ल का रूप ले मुखर हो उठते हैं। भ्रूण-हत्या और बेटियों के प्रति असमानता का व्यवहार ,दहेज और शिक्षा का अभाव , जैसे सवाल उठाकर कवि उनके उत्तर तलाशने का प्रयास कर रहा है | कवि शहीदों के सपनों के भारत की कल्पना को साकार होते देखने की चाहत मन में रखकर सृजन कार्य में रत है |
कृषक परिवार में जन्मे गुलिया जी किसानों के हर दर्द को बाखूबी समझते हैं किसानों की चिंताएँ उन्होंने बहुत करीब से देखी हैं, यही कारण है कि धरती माँ के प्रति उनकी पुत्रवत आस्था देख मन भाव विभोर हो जाता है
कर्जे से दबे किसान , बढ़ता अतिक्रमण , फसल योग्य भूमि पर बनते कारखाने , फसल पर मौसम का कहर आदि आपदाओं का वर्णन कर,कवि ने सरकारों के प्रति मन की कुंठा को काव्य के रूप में प्रकट किया है कवि की मनोभूमि में जब पीड़ा के अंकुर फूटते हैं तब कवि अनायास ही बोल पड़ता है कि -
लोकलाज ने खा लिए, जननी के जज़्बात।
कचरे के डिब्बे पड़ा, सोच रहा नवजात ।
घटाटोप को देखकर, सोचे खड़ा किसान ।
देखूँ सूखा खेत या, दरका हुआ मकान ।।
इस बंगले को देखकर, मत हो तू हैरान।
इसके खातिर खेत ने, खो दी है पहचान ।।
कवि ने देश मे बढ़ते भ्रष्टाचार और गिरगिट की तरह रंग बदलते सियासतदारों को बड़ी बेबाकी और साहस से आँख में आँख डालकर चेताया है तो दूसरी ओर धर्म के नाम पर होती राजनीति का पर्दाफ़ाश किया है ,मतदान के प्रति जनमानस को जागृत करने का सफल प्रयास करके कवि भारत के नवनिर्माण की और इशारा करता हुआ कहता है-
महल विधायक देखकर , आया यही ख्याल।
शक्ति बहुत है वोट में, सोच समझ कर डाल ।।
जनसेवक है खेलता, आज अनोखा खेल।
एक पैर संसद भवन, रहे दूसरा जेल ।।
प्रकृति के प्रति समाज की उदासीनता देख कवि मन द्रवित हो उठता है , जिस प्रकृति ने मानव को अपना दुलार देकर बड़ा किया मनुष्य का उसके प्रति यह दुर्व्यवहार कवि को अखरता है ,आशावादी कवि बदलाव के इस तूफान से लड़कर फिर से परम्पराओं के सुमन खिलाने की चाहना रखता है । बड़े गम्भीर अंदाज में आज की व्यवस्था पर कटाक्ष कर कवि सुधार की नींव के लिए मजबूत स्तम्भ तलाश रहा है ।
मैली गंगा देखकर , उभरा यही सवाल।
आज भगीरथ देखते, होता बहुत मलाल।।
वृक्ष काट ले रहे, कितनी महंगी पीर।
कम बरसे अब मेघ भी ,गया रसातल नीर ।।
जब -जब रिश्वत को मिला , अपना सही मुकाम।
झटपट ख़ारिज हो गए,जितने थे इल्ज़ाम ।।
अखर गया कुतवाल को, उसका एक सवाल।
केस बनाकर लूट का, किया बरामद माल।।
सुंदर शब्द संयोजन,सरल भाषा शैली, सहज भाव अनुभूति इस संग्रह की श्रेष्ठता अनुप्रमाणित करती है। उर्दू शब्दों का खूबसूरत प्रयोग छंद की खूबसूरती बढ़ा रहा है ।
मन के भावों को शब्दों में ढालकर , शिल्प का माधुर्य भर पाठक वर्ग तक लाना एक लम्बी यात्रा है । मुझे पूर्णतः विश्वास है कि यह संग्रह पाठक के अंतर्मन को जरूर छुएगा । उनकी यह साहित्यिक यात्रा अनवरत चलती रहे और भविष्य में उनकी अविस्मरणीय कृतियाँ पढ़कर मन भावविभोर होता रहे । इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ मैं श्री राजपाल सिंह गुलिया जी को आत्मिक बधाई प्रेषित करती हूँ । सादर
सुनीता काम्बोज
मकान नंबर -120 टाइप -3 ,जिला –संगरूर
संत लौंगोवाल अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी संस्थान
लौंगोवाल ,पंजाब -148106
ईमेल -Sunitakamboj31@gmail.
विधा –दोहा छंद
मूल्य- 200.00 रुपये
पृष्ठ संख्या -96
प्रथम संस्मरण -2018
प्रकाशक – अयन प्रकाशक ,1/2 महरौली, नई दिल्ली – 110 030
दूरभाष – 981898861
समीक्षक –सुनीता काम्बोज
अनुभूतियों की यात्रा
बहुआयामी प्रतिभा के धनी श्री राजपाल सिंह गुलिया जी ,साहित्य की विविध विधाओं में अनवरत लिख रहे हैं । अनेक पत्र -पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के माध्यम से उनके छंदों, बालगीतों एवं ग़ज़लों ने जनमानस के पटल पर एक प्रभावी स्थान बनाया है । हिंदी के साथ -साथ हरयाणवी भाषा के प्रति उनका प्रेम एवं समर्पण सराहनीय है। श्री राजपाल सिंह गुलिया जी की साहित्यिक यात्रा का पहला स्तम्भ , उनका पहला दोहा संग्रह “उठने लगे सवाल" अपने शीर्षक को सार्थक करता है । पुस्तक पढ़कर गुलिया जी का समस्त व्यक्तित्व हमारे सामने उभर जाता है। यह दोहा-संग्रह कवि के गहन चिंतन और अनुभूतियों का धाराप्रवाह प्रकटन है | एक सुयोग्य शिक्षक की भूमिका में गुलिया जी राष्ट्रीय निर्माण के साथ - साथ साहित्य के उन्नयन में भी अहम भूमिका अदा कर रहे हैं । साहित्य के अमृत से अपनी सांस्कृतिक जड़ों को सींचकर कवि ने अपनी धरोहर और मर्यादाओं का संरक्षण किया है | कवि ने मन में उठते सवालों को शब्द देकर जो दोहे रचे वह पाठक के अन्तरतल पर अपनी मधुर सुगन्ध छोड़ जाते हैं। साहित्यिक सागर में भावपक्ष अगर नौका है तो शिल्प पक्ष पतवार की तरह है,एक के बिना भी यात्री पार जाने में अक्षम है । यह दोहा-संग्रह शिल्प और भावपक्ष के सारभूत और व्यापक दृष्टिकोण के कारण कवि राजपाल सिंह गुलिया जी को उच्च श्रेणी के दोहाकारों की श्रेणी में लाकर खड़ा करता है । श्री राजपाल सिंह गुलिया जी का खेतों और गाँव से लगाव , देश के प्रति निष्ठा और प्रेम, सियासतदारों के प्रति आक्रोश ,बदलते परिवेश के प्रति चिंता , संकीर्ण सोच, आज का मानवता का गिरता स्तर,प्रकृति दोहन, दार्शनिक दृष्टि, बढ़ते हथियार ,अवसरवाद, असमानता ,सामाजिक विसंगतियों आदि पहलुओं को छूकर लेखनी चलाई है
आज का अतृप्त मानव अपने सुखों को देखने की बजाय दूसरों की गागर का अनुमान लगाने में उलझा रहता है ,समाज में दिखावे के बढ़ते संक्रमण के कारण मानव स्वयं के दोषों को अनदेखा कर औरों के अवगुण गिनने में लगा है । कवि ने मानव के बदलते मिजाज और दिखावे के अंदाज को बयाँ किया है । मानव की इस सोच पर व्यंग करते हुए यह दोहे सब कुछ कह जाते हैं
धीरज उसमें धर सखे, जो है तेरे पास ।
देख गगरिया गैर की ,बढ़ा रहा क्यों प्यास
सूप पड़ा चुपचाप अब, समझ न आया भेद।
छलनी बढ़-चढ़ बोलती, जिसमें, अनगिन छेद ।।
गुलिया जी के सन्देशप्रद दोहे, जीवन की पगडंडी से भटकते मानव को आवाज दे रहे हैं । जिस प्रकार कबीर जी , रहीम जी और बिहारी जी के दोहे ने सामजिक ,धार्मिक ,राजनैतिक आडम्बरों पर चोट की है उसी प्रकार गुलिया जी ने अनेक ज्वलंत मुद्दों को बड़ी निर्भीकता से ललकारा है कुछ दोहे खुद में कई गूढ़ अर्थ समेटे हुए चमत्कृत कर उठते हैं
बानगी के तौर पर कुछ दोहे -
लोग रहे सब तापते, जब तक जला अलाव।
फिर उस ठंडी राख से, रखता कौन लगाव।।
खुरपे की जब से सखे ,कुंद हुई है धार।
बगिया में बढ़ने लगा, तब से खतपतवार ।।
कवि मन जनमानस की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझता है । जब कवि का कोमल हृदय किसी असहज घटना से आहत हो जाता है तब अनायास ही उसके भाव कविता,छंद,या ग़ज़ल का रूप ले मुखर हो उठते हैं। भ्रूण-हत्या और बेटियों के प्रति असमानता का व्यवहार ,दहेज और शिक्षा का अभाव , जैसे सवाल उठाकर कवि उनके उत्तर तलाशने का प्रयास कर रहा है | कवि शहीदों के सपनों के भारत की कल्पना को साकार होते देखने की चाहत मन में रखकर सृजन कार्य में रत है |
कृषक परिवार में जन्मे गुलिया जी किसानों के हर दर्द को बाखूबी समझते हैं किसानों की चिंताएँ उन्होंने बहुत करीब से देखी हैं, यही कारण है कि धरती माँ के प्रति उनकी पुत्रवत आस्था देख मन भाव विभोर हो जाता है
कर्जे से दबे किसान , बढ़ता अतिक्रमण , फसल योग्य भूमि पर बनते कारखाने , फसल पर मौसम का कहर आदि आपदाओं का वर्णन कर,कवि ने सरकारों के प्रति मन की कुंठा को काव्य के रूप में प्रकट किया है कवि की मनोभूमि में जब पीड़ा के अंकुर फूटते हैं तब कवि अनायास ही बोल पड़ता है कि -
लोकलाज ने खा लिए, जननी के जज़्बात।
कचरे के डिब्बे पड़ा, सोच रहा नवजात ।
घटाटोप को देखकर, सोचे खड़ा किसान ।
देखूँ सूखा खेत या, दरका हुआ मकान ।।
इस बंगले को देखकर, मत हो तू हैरान।
इसके खातिर खेत ने, खो दी है पहचान ।।
कवि ने देश मे बढ़ते भ्रष्टाचार और गिरगिट की तरह रंग बदलते सियासतदारों को बड़ी बेबाकी और साहस से आँख में आँख डालकर चेताया है तो दूसरी ओर धर्म के नाम पर होती राजनीति का पर्दाफ़ाश किया है ,मतदान के प्रति जनमानस को जागृत करने का सफल प्रयास करके कवि भारत के नवनिर्माण की और इशारा करता हुआ कहता है-
महल विधायक देखकर , आया यही ख्याल।
शक्ति बहुत है वोट में, सोच समझ कर डाल ।।
जनसेवक है खेलता, आज अनोखा खेल।
एक पैर संसद भवन, रहे दूसरा जेल ।।
प्रकृति के प्रति समाज की उदासीनता देख कवि मन द्रवित हो उठता है , जिस प्रकृति ने मानव को अपना दुलार देकर बड़ा किया मनुष्य का उसके प्रति यह दुर्व्यवहार कवि को अखरता है ,आशावादी कवि बदलाव के इस तूफान से लड़कर फिर से परम्पराओं के सुमन खिलाने की चाहना रखता है । बड़े गम्भीर अंदाज में आज की व्यवस्था पर कटाक्ष कर कवि सुधार की नींव के लिए मजबूत स्तम्भ तलाश रहा है ।
मैली गंगा देखकर , उभरा यही सवाल।
आज भगीरथ देखते, होता बहुत मलाल।।
वृक्ष काट ले रहे, कितनी महंगी पीर।
कम बरसे अब मेघ भी ,गया रसातल नीर ।।
जब -जब रिश्वत को मिला , अपना सही मुकाम।
झटपट ख़ारिज हो गए,जितने थे इल्ज़ाम ।।
अखर गया कुतवाल को, उसका एक सवाल।
केस बनाकर लूट का, किया बरामद माल।।
सुंदर शब्द संयोजन,सरल भाषा शैली, सहज भाव अनुभूति इस संग्रह की श्रेष्ठता अनुप्रमाणित करती है। उर्दू शब्दों का खूबसूरत प्रयोग छंद की खूबसूरती बढ़ा रहा है ।
मन के भावों को शब्दों में ढालकर , शिल्प का माधुर्य भर पाठक वर्ग तक लाना एक लम्बी यात्रा है । मुझे पूर्णतः विश्वास है कि यह संग्रह पाठक के अंतर्मन को जरूर छुएगा । उनकी यह साहित्यिक यात्रा अनवरत चलती रहे और भविष्य में उनकी अविस्मरणीय कृतियाँ पढ़कर मन भावविभोर होता रहे । इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ मैं श्री राजपाल सिंह गुलिया जी को आत्मिक बधाई प्रेषित करती हूँ । सादर
सुनीता काम्बोज
मकान नंबर -120 टाइप -3 ,जिला –संगरूर
संत लौंगोवाल अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी संस्थान
लौंगोवाल ,पंजाब -148106
ईमेल -Sunitakamboj31@gmail.
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