सुनीता काम्बोज |
गीत
निगाहें ढूँढती फिरती उसी आँगन उसी घर को
मधुर फटकार वो माँ की पिता जी के उसी डर को
नहीं मन्दिर मिला है वो नहीं वो देवता मिलते
न उनका हाथ है सर पर न देते वो दुआ मिलते
इबादत मैं करूँ कैसे किसे दिल की सुनाऊँ मैं
समझ में ही नहीं आता झुकाऊँ मैं कहाँ सर को
निगाहें ---
वो माँ का बोलना माँ की वो आँखें याद आती
न अब तो काम कोई भी दुआ फरियाद आती है
कहाँ से ढूँढ लाऊँ मैं पता कोई नहीं मिलता
वो ममता की नदी को और उस करुणा के सागर को
निगाहें ---
मेरे सुख के लिए ही वार दी अपनी सभी खुशियाँ
मेरे गुण ही बताते थे दबा लेते थे सब कमियाँ
सुनीता वो कहाँ किस देश में जाकर छिपे होंगे
धरा से पूछती हूँ
मैं कभी पूछा है अम्बर को
निगाहें --
सुनीता काम्बोज
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