दोहे
रब तो केवल एक है ,कहते सारे वेद ।
पर मानव करता रहा,आपस में मतभेद ।।
उसने ऐसे तीर से ,सीना डाला भेद ।
भर पाएँगे ना कभी, मेरे दिल के छेद ।
निकला घर से रोज ही, करने कारोबार।
खुद को ही ठगता रहा,मुस्काकर हर बार ।।
निर्धन का, धनवान का, यहाँ बराबर मान ।
जात-पात कब जानता, ऐसा है शमशान ।।
हिस्सा अपना रोज ही ,लेती हूँ मैं नाप ।
माटी में मिल ढूँढती , खुद को अपने आप
फूलों के कारण हुई,काँटो से तकरार।
काँटों में फँस ओढ़नी, होती तारमतार ।।
पाती लेकर घूमता , पढ़े नहीं सन्देश।
बाहर मीठा बोलता,घर में करे कलेश।।
मर्यादा की डोर हो, हो करुणा का हार ।
दया, प्रेम से भी करो, इस मन का शृंगार ।।
पतझर में कैसे बनूँ, मैं मिलने का गीत।
अधर लगे हैं काँपने, मनवा है भयभीत।।
अदा किया है चाव से,सबने ही किरदार ।
कोई खुशियाँ बाँटता, कोई ये अंगार ।।
मनवा बदले रोज ही, कितने ही परिधान
इन रोगों की है दवा, केवल सच्चा ज्ञान।।
चम्पा रोये केतकी, रोया बड़ा गुलाब,।
आँधी ने बिखरा दिए,आकर सारे ख्वाब।।
वर्षों बीते आज मैं, लौटा हूँ जब गाँव ।
बूढ़े पीपल की मुझे, मिली न ठंडी छाँव ।।
हर एक मुश्किल रास्ता,हो जाता आसान ।
दृढ़ निश्चय से टूटती ,राहों की चट्टान ।।
ये कुदरत का खेल है, या माली की भूल ।
बागों में कुछ मिल गए, बिन खुशबू के फूल ।।
सुनीता काम्बोज©