कवि-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
विधा-गीत
कृति - समय की पगडंडियों पर(गीत संग्रह)
मूल्य-₹ 200:00
पृष्ठ संख्या-112
पहला संस्मरण -2018
प्रकाशन- राजस्थानी ग्रन्थागार
प्रथम माला,गणेश मंदिर के पास
सोजती गेट,जोधपुर(राजस्थान)
सम्पर्क-0291-2657531
समीक्षक - सुनीता काम्बोज
गीतों में संवेदनाओं की महक
गीत का फलक विस्तृत है । साहित्य की सबसे प्राचीन विधा होने के साथ- साथ आज भी गीत मानवीय हृदय के सबसे नजदीक है । गीत विधा की परंपरा को विस्तार देता एक गीत संग्रह "समय की पगडंडियों पर " चलते हुए अनेक इंद्रधनुषी अनुभव समेट कर साहित्य अनुरागियों के लिए उत्कृष्ट गीतों का गुलदस्ता लेकर आया है।
प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी द्वारा रचित गीत संग्रह"समय की पगडंडियों पर" पढ़ने का सुंदर सुयोग बना । इस संग्रह के गीतों एवं नवगीतों में समाहित माधुर्य ,गाम्भीर्य, अभिनव कल्पना, सहज,सरल भाषाशैली, गेयता की अविरल धार, हृदयतल को अपनी मनोरम सुगन्ध से भर गई। बाल साहित्य,कुण्डलिया छंद व अनेक काव्य विधाओं में अपनी लेखनी का लोहा मनवाने वाले वरिष्ठ साहित्यकार श्री ठकुरेला जी ने बड़ी संजीदगी से अपनी गहन अनुभूतियों को गीतों में उतारा है । इन गीतों में कभी शृंगार की झलक दिखाई देती है तो कभी जीवन दर्शन । कभी देश प्रेम का रंग हिलोर लेता है तो कभी सामाजिक विसंगतियाँ।
बड़ी खूबसूरती से गीतों में छंद परम्परा का निर्वाह किया गया है। प्रबल भाव, सधा शिल्प सौष्ठव । हर दृष्टिकोण से इस संग्रह के गीत भाव एवं कला पक्ष की कसौटी पर कसे हुए हैं। " करघा व्यर्थ हुआ कबीर" इस गीत में कवि ने बदलते परिवेश एवं आधुनिक जीवन शैली की और इशारा करके प्रतीतात्मक शैली का प्रयोग किया है।नवगीतों में अदभुत प्रयोग देखते ही बनता है।
करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया
काशी में नंगों का बहुमत
अब चादर की किसे जरूरत
सिर धुन रहे कबीर
रुई का
धुनना छोड़ दिया
बेरोजगार शिल्पकारों और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य का सजीवचित्रण करते हुए कवि अपनी वेदना व्यक्त करता है। गुजरे जमाने का स्मरण करते हुए कवि पाषाण बनती जा रही मानवीय संवेदना देख व्याकुल है। कवि मन कहता है कि अब सामाजिक मूल्यों का कोई मोल नहीं क्योंकि लोग काँच को ही मोती समझ रहे हैं।एक अन्य गीत गीत "बिटिया" के माध्यम से कवि ने मन के अहसास को शब्द देकर नारी शोषण पर करारा प्रहार किया है ।
बिटिया ।
जरा संभल कर जाना
लोग छिपाए रहते खंज़र
गाँव, शहर
अब नहीं सुरक्षित
दोनों आग उगलते
कहीं कहीं तेजाब बरसता
कवि का कोमल मन समय का दर्पण देख गीत के माध्यम से बिटिया की पीड़ा को शब्द देकर कह रहा है कि अब वह कहीं भी सुरक्षित नहीं। तेजाब कांड के प्रति रोष जताते हुए कवि ने पथभ्रष्ट युवाओं को काँटे दार वृक्ष की संज्ञा दी है। ठूठ होते संस्कारों से सावधान करता हुआ कवि हृदय बेटियों के साथ होती दुखद घटनाओं से आतंकित हैं।
आखिर कब तक
चुप बैठेंगे
चलों वर्जनाओं को तोड़ें
जाति, धर्म,भाषा में
उलझे
सबके चेहरे बंटे हुए हैं
व्यर्थ फँसे हुए हैं
चर्चाओं में
मूल बात से कटे हुए हैं
आओ बिखरे संवादों की
कड़ियाँ कड़ियाँ फिर से जोड़ें।
"कड़ियाँ फिर से जोड़ें" आशा से भरा यह नवगीत इस बात का परिचायक है कि कवि आज भी लहरों में भटकी कश्तियों के किनारे पर आने की आशा रखता है। आज कवि आवाज दे रहा है कि जात-पात, धर्म, भाषा से ऊपर उठकर हम नए भारत का निर्माण करें। इसके अलावा हरसिंगार रखो, अर्थ वृक्ष,मन उपवन, मिट्टी के दीप, बदलते मौसम, सुनों व्याघ्र आदि गीतों एवं नवगीतों का काव्य सौन्दर्य सराहनीय है।
आँखें फाडे
खड़े हुए हैं
राजमहल के आगे
शायद राजा जागे ।
इस नवगीत के मुखड़े से ही इसकी सारी खूबसूरती प्रकट हो जाती हैं । राजनीतिक तानशाही के प्रति विद्रोह के तीव्र स्वर जब विस्फुटित होते है तब मन मे दबा आक्रोश जगजाहिर हो जाता है। शासक कुम्भकरणी निद्रा के वशीभूत है। राजनीतिक दल अपने अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे हैं। कवि के मन मे सुलगती चिंगारी अब गीत का रूप लेकर प्रज्वलित हुई है।
जब मन उद्वेलित होता है तब प्रेम की सरस, मधुर बूँदे हृदय को शीतलता प्रदान करती हैं।
शृंगार रस के गीतों में कवि का प्रियतम के प्रति समर्पण भाव का परिचय मिलता है।
मैं अपना मन मन्दिर करलूँ
उस मंदिर में तुम्हें बिठाऊँ।
वंदन करता रहूँ रात-दिन
नित गुणगान तुम्हारा गाऊँ।
गीतों में कहीं प्रेम की पराकाष्ठा तो कभी विरह की कठिन घड़ियाँ ।
कवि "दिन बहुरंगे", गीत के द्वारा स्वार्थ की नींव पर टिके रिश्तों की तस्वीर दिखलाता है तो कभी पिता के विशाल चरित्र को शब्दों में ढालने का सफल प्रयास करता है। यह संग्रह में 82 गीतों की माला है माला के हर मोती की आभा अनोखी है । जड़ों से जुड़ी भावनाओं से रचे गए गीतमन के तार छूने में सक्षम हैं ।" समय की पगडण्डियों पर" गीत संग्रह का प्रकाशन "राजस्थान साहित्य अकादमी,उदयपुर "के आर्थिक सहयोग से होना सुखद है ।
यह पुस्तक पढ़ना अत्यंत सुखद रहा । श्री ठकुरेला जी पेशे से इंजीनियर हैं। अनेक पुस्तकों के सम्पादन कर चुके हैं । उनके तीन एकल संग्रह प्रकाशित हैं । मुझे विश्वास है यह गीत संग्रह पाठक वर्ग में अपना उच्च स्थान बनाएगा आशा करती हूँ शीघ्र उनकी अन्य कृतियों से हमें रूबरू होने का अवसर मिलेगा।
अंत मे मैं श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी के उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूँ । हार्दिक बधाई एवं मंगलकामनाएँ ।
सुनीता काम्बोज
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