Sunday, June 11, 2017

कविता --सुनीता काम्बोज

     सुनीता काम्बोज 

                  कविता

हर कोई है दुख से हारा, क्या बतलाएँ
हाथों में पकड़ा अंगारा, क्या बतलाएँ


इक दूजे की टाँगे खींचे, क्या बतलाएँ
नफरत के पेड़ों को सींचे, क्या बतलाएँ


रिश्वतखोरी, चोरबजारी, क्या बतलाएँ
नहीं सुरक्षित घर में नारी, क्या बतलाएँ


शिक्षा लगती जैसे धन्धा, क्या बतलाएँ
तन उजला पर मन है गन्दा, क्या बतलाएँ


अब तो पूजा जाए झूठा, क्या बतलाएँ
सत्य पड़ा है टूटा-टूटा, क्या बतलाएँ


गली-गली में गैया घूमें, क्या बतलाएँ
अब वो कुत्ते का मुँह चूमें, क्या बतलाएँ


घर के अंदर बड़ी सफाई, क्या बतलाएँ
जमी हुई रिश्तों पर काई, क्या बतलाएँ


अलग-अलग कानून व्यवस्था, क्या बतलाएँ
कुछ को महँगा, कुछ को सस्ता, क्या बतलाएँ


कमजोरों को आँख दिखाते, क्या बतलाएँ
चमचे उनकी महिमा गाते, क्या बतलाएँ

आज किसानों की ये पीड़ा, क्या बतलाएँ
फसलों को खा जाता कीड़ा, क्या बतलाएँ


बाबाओं का गोरखधंधा, क्या बतलाएँ
कभी नहीं जो होता मन्दा, क्या बतलाएँ

दिन भी लगते काले-काले, क्या बतलाएँ
सहमे-सहमे खड़े उजाले, क्या बतलाएँ


पत्थर जैसे हो गए बन्दे, क्या बतलाएँ
झुके हुए हैं सबके कंधे, क्या बतलाएँ


सुनीता काम्बोज 

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थके पंछी