कृति- मिणधर माण मरदण (नागदमण)
कृतिकार- मनोज चारण
प्रकाशक-श्री हिंगुलालय प्रकाश
लिंक रोड़, वार्ड नं. -3
रतनगढ़ -331022
सम्पर्क-9414582964
पृष्ठ-76
मूल्य-50/ -
समीक्षक- सुनीता काम्बोज
शब्द-शब्द में
कान्हा जी की मुरली का स्वर सुनाई देता है
हिन्दी
साहित्य का भक्तिकाल,
स्वर्ण काल कहा जाता है। इस युग मे सबसे श्रेष्ठ काव्य रचा गया । इस काल में कबीरदास, सूरदास, रविदास, तुलसीदास, मीराबाई आदि महान विभूतियों का अमर काव्य आज भी जन मानस का प्रिय है।
इसी पथ के राही श्री मनोज चारण जी के हृदय रूपी हिमालय से
सरस, मधुर, भक्तिमय
मंदाकिनी "मिणधर माण मरदण
"(नागदमण) कृति का उद्घटन हुआ । कन्हैया जी और कालिया नाग के संग्राम को
पढ़ रोम-रोम पुलकित हो जाता है। इस भक्तिमय
सरोवर के कमलों की सुगंध श्वासों में बहने लगती है । इस कृति को पढ़ ऐसे अनुभव हुआ, जैसे कवि हृदय के
थाल में शब्दों के दीप जलाकर, घनाक्षरी छंद के पुष्प सजाकर अनवरत कान्हा जी की
उपासना में लीन हो । छंदों की अदभुत गेयता और शब्द संयोजन सम्मोहित कर देते हैं । मनभावन आवरण पृष्ठ मंत्रमुग्ध कर देता है।
साहित्य
की कई विधाओं के श्रेष्ठ
रचनाकार ‘मनोज
चारण जी’
की यह अमर कृति उनके साहित्यिक सफर की हमेशा बड़ी उपलब्धियों में गिनी जाएगी।
भावपक्ष के साथ-साथ, उच्च छंद साधना ने इसे अमूल्य बना दिया है । मनोज जी का हिन्दी के साथ-साथ अपनी माँ बोली
राजस्थानी के प्रति स्नेह और समर्पण अतुलनीय है ।
गोकुल के गांव मांहि, भोर भयी दिन उग्यो
सूरज उगाळी दिख, रहयो
लाल-लाल सो ।
गायां तो रम्भाय रही, बछड़ा उछळ रैया
भोर मोर नाच रहयो, मन्द-मन्द ताल सों।
दही के बिलौने वाली, आय'री मधुर धुन,
जाणै घन गरज राहयो है,
दूर ताल सों ।
उठो
प्यारे भोर भयी, गैया तो उड़ीक
रही
,
जसुमति
कह रही, अपने ही लाल सों ।।
घनाक्षरी
की उक्त पँक्तियों में कवि ने बड़ी सुंदरता से गोकुल की भोर का चित्रण किया है सूरज
के उगने से आकाश में लालिमा छाई हुई है । नन्दबाबा की गऊशाला में गैया राभ रही है । माँ के पास जाने को बछड़ा
उछल कूद कर रहा है । भोर में मोर मगन हो मन्द-मन्द ताल पर नृत्य कर रहे है । दही के बिलौने की ध्वनि की कल्पना कवि ने घन गर्जन से
करके उपमा अलंकार का उदहारण प्रस्तुत किया है। यशोदा
माँ अपने लाल को प्रेम से उठा रही है कि हे मेरे प्यारे लल्ला उठो गैया तुम्हें पुकार रही हैं। उन्हें
चराने के लिए वन में ले जाओ । माँ यशोदा के वात्सल्य का अनुपम
वर्णन हृदय में अपार
सुख भर रहा है।
नटखट नन्दलाला, खेलत है गेंद तीर,
गेंद जाय मारी देखो, दुनिया के नीर में।
तुम्हीं
अब
जाओ लाला,
गेंद
हमारी लाओ लाला
मार दई काळीयै के, दह वाले नीर में।
कस लई काछनी तो, कूद गए नदी मांहि
तरन लगे
है कान्हा,जमुना
के नीर में।
श्याम सलौना देख, नागिन
भयभीत भई
कहाँ से आए हो लल्ला, काल
की कुटीर में ।
कवि
मनोज कुमार चारण जी ने माँ यशोदा का वात्सल्य, कन्हैया और ग्वाल बालों की
अठखेलियों को बड़ी संजीदगी और समर्पण भाव से शब्दों में पिरोया है। यही
माधुर्य पढ़ने वाले को बाँध कर रखता है ।
उपरोक्त छंद में कवि कहता है कि जब कान्हा जी गैयों को लेकर यमुना पर आते है तब गैया चरने लगती हैं । तब ग्वाल गेंद खेलने में मस्त हो जाते है। खेलते-खेलते गेंद यमुना जी
मे जा गिरती है, तभी ग्वाल कान्हा जी को बार–बार
गेंद लाने के लिए कहते हैं। तब कान्हा जी यमुना में कूद पड़ते हैं। नन्हे बालक को
जल में देख नागिन भयभीत हो जाती है और
कहती है कि हे लल्ला तुम काल के घर क्यूँ आ गए
।
मोहनी
मूरति या ने, छीन
लियो चैन
लल्ला,
साँवळी
सुरतिया में, जान अब अटकी।
तिरछी
सी चितवन, तेरी
अति प्यारी लागे,
नयन
कटारी अब, काळजै
में खटकी।
हंसी
तेरे अधरों की, हमको
लगे है प्यारी,
जादुगारी
चाल तेरी, जैसे
कोई नट की।
मान
को पियरे बात, सब
कहि-कहि
हारे,
कहो
काहे आये तुम, काल
वाली कटकी ।
कवि
ने नागिन के माध्यम से कन्हैया जी के सुकोमल अद्वितीय सौन्दर्य का बेजोड़
वर्णन किया है । नागिन, कन्हैया
जी की मोहिनी सूरत देख कहती है कि हे लल्ला तुम्हारी
साँवळी सूरत में मेरी जान अटक गई है । तुम्हारे नैन की कटारी ने मेरे हृदय पर वार किया
है । प्यारे लाला तुम्हारी जादू भरी चाल ऐसे लगती है जैसे रस्सी पर नट चल रहा हो ।
तुम मेरी बात मान कर वापिस लौट जाओ। तुम जान गवाने
के लिए काल के पास क्यूँ चले आए । कन्हैया जी की मधुर मुस्कान पर मोहित हो, नागिन
कान्हा जी का नाम पता पूछती है। और कालिया के विष का डर दिखाकर वापिस लौट जाने का आग्रह
करती है। जब कान्हा जी उसे अपना नाम बताते है, तब वह काँप उठती है क्योंकि उसने पूतना, बकासुर के प्रसंग लोगो से सुने थे। उसी समय
कालिया नींद से जागने लगता है।
नींद
तोड़ काल जाग्यो, पूंछ फटकार जाग्यो,
काळै
काळै कालियै की, आँख लाल लाल है
सरर
सरर सरणाटो,
लग्यो
होण भारी
जग
गयो सोयो नाग, फ़नधर
व्याल है।
जाग्यो
जाणै महादेव, तीसरी पलक खोल
नींद
छोड़ कुंभ जाग्यो, जाणै
महाकाल है।
भयो
अति क्रोध भारी, जमना हिलै है सारी,
गरण-गरण फिरै, कस रहयो जाल है
कवि
ने कालिया के जगने का दृश्य प्रस्तुत
करते हुए कहा कि कालिया की लाल आँखों मे क्रोध भरा है । कवि ने
कालिया की तुलना महादेव,
महाकाल से की है । कवि आगे कहता है कि जब कालिया जागता है तब सारी यमुना हिलने
लगती है। वह घोर गर्जना करता है ।
काळीयों
झपट पड्यो ,कान्है नै जकड़ लियो
पास
मै पकड़ कर, लाग्यो
यूं मरोड़ने।
जाणै
कोई अजगर, पकड़ लियो है बाछो,
जोर
लगावन लाग्यो, हड्डियों
जो तोड़नै।
जाणै
कोई रजुक लगाय, रहयो जोर भारी,
पानी
सारो झाड़ दियो, कपड़े निचोड़नै।
ओहि
भांति मिणधर, करण
लग्यो है जोर,
कान्है
नै लुकाय लीनों,
अपनी
ही क्रोड़ मै।
गिरधर की महिमा का
गुणगान करते हुए कवि कहता है कि कालिया, कृष्ण जी को देख क्रोध से भर जाता है।
कालियानाग, कन्हैया को देख कर उन पर झपट पड़ता है तथा कान्हा जी को अपने पाश में जकड़कर मरोड़ने लगता है। कवि को यह दृश्य ऐसे लगता है जैसे भयंकर अजगर किसी कोमल बछड़े को
जकड़ रहा हो, तभी कालिया मधुसुदन की हड्डियों को तोड़ने का ऐसे प्रयास करता है जैसे एक धोबी जोर लगाकर कपड़ा
निचोड़ रहा हो। बल के अभिमान में अँधा विषधर, जग के पालनहार की महिमा से अनजान होने के कारण कान्हा जी को निचोड़ने के लिए
आतुर और अपनी गोद में छुपाकर मार डालने को
बेचैन है। छंदों के इस सफर में कवि की लेखनी का जादू कहीं भी कम नहीं होता अपितु और भी बढ़ता दिखाई देता है ।
रण मांही कान्ह अब ,पीटन लग्यो है काल,
मार-मार मुक्का मुख,फोड़ दियो नाग को।
जैसे-जैसे पड़ रही ,मार मुख भारी देखो,
टूटन लग्यो है अब, जोर देखो नाग को।
जैसे-जैसे कमजोर पड़न लग्यो है काळो,
तैसे-तैसे कान्ह भारी, पड़ रहयो नाग को।
आँख्या मै अंधारी सी तो, दिख रही काळीयै नै,
दिखन लग्यो है अब, काळ खुद नाग को।।
कवि के बहुत भक्तिभाव से कान्हा जी
और कालिये के संग्राम के वर्णन करते हुए कहते हैं कि जब कालिया की सब
कोशिशे नाकाम हो जाती हैं। तब कन्हैया कालिया
के मुँह पर मुक्के से प्रहार करके उसको घायल कर देता है। कान्हा जी के वार से कालिया कमजोर पड़ने लगता है तभी कान्हा
जी कालिया पर भारी पड़ने लगते है । मार खाते हुआ कालिया
की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगता है फिर घायल कालिया को कान्हा जी के रूप में काल
दिखाई देने लगता है । कालिया और कान्हा जी में घोर संग्राम होता है। ग्वाल यह सूचना नन्दबाबा और यशोदा जी को देते
है । गोकूल
के नर नारी बहुत दुखी होते है माँ यशोदा कान्हा जी को
पुकारते-पुकारते
मूर्छित हो जाती
है। नागिन यह देख व्याकुल हो जाती है तथा
कान्हा जी के आगे हाथ जोड़ के प्रार्थना करती है कि -
कर जोर मांग रही, माथै का सिंदूर देय,
पांव पकरूँ मैं तोरे, सुनो अब कान्हा जी।
नाक रगड़ूँ मैं अब, सामने तिहारे लल्ला,
दण्डवत करती हूँ, बात मेरी मान जी ।
मात जो कही थी तूने, बात अब मान मोरी ,
दीनानाथ छोड़ देओ, कालियै की जान जी।
गज हेत दौड़े आये, तुम जब बनवारी,
आज लाज मात की भी, रख लेवो कान्ह जी ।।
कवि नोज चारण जी जी घनाक्षरी छन्द के आने भाव प्रकट करते हुए कहते
है कि कान्हा
जी कलिये को पटक-पटक कर अधमरा कर देते है तब व्याकुल नागिन कान्हा जी को कहती है कि हे मेरे कान्हा जी मैं हाथ जोड़कर, पाँव पकड़ कर तूमसे अपनी माँग का सिंदूर माँग रही हूँ। हे सृष्टि नाथ मैं तुम्हारे सामने नाक रगड़ कर दंडवत हूँ । हे लल्ला तुमने मुझे माता कहा है इसी नाते तुम मेरा
यह निवेदन स्वीकार कर लो हे नाथो के नाथ दीनानाथ हे बनवारी तुम गज के लिए दौड़े आए
थे, क्या माता की लाज नहीं बचाओगे। फिर नागिन हरी के अनेक अवतारों का बखान करके कान्हा जी की वन्दना करती है। घोर युद्ध के बाद
कालिया कान्हा जी की माया समझ जाता है। और प्रभु को बार-बार
दंडवत प्रणाम करता है।
चल काल बाहर, निकल अब नीर से,
तेरे शीश धर पैर, तुझको ऊबार दूंगो
मुझको उठाय चल, अपने शरीर से
नाग तो उठाय लियो,
कान्है नै यूं फण पर
सेसनाग भूमि जा जाणै, धरते हैं धीर से
सिस्टी के नाथ को, उठाय लेय शीश ऊपर
काळीयो निकल आयो, दह
वाले नीर से
काळीयै के फण पर, नाचत लग्यो है कान्ह
दे दे ताली नाच
रह्यो मुरली की ताँ पे,
ठुमक ठुमक नाचै, कमर
पे हाथ रख ।
नाच रह्यो नटवर,
अपनी ही तान पे
इत झुके उत झुके रह्यो
लय ताँ पे ।
कान्हा को यो
नाच्देख, मुदित भये पुरारी,
नटराज नाच उठे,
कान्ह जी की तान पे ।।
इस छन्द में कवि ने कालिया की दशा का दर्शाया है कालिया
के बार-बार क्षमा के बाद कान्हा
जी उसे यमुना छोड़ कर नागलोक जाने का आदेश देते
हैं । लीलाधर, गिरधारी
कालिये के फन पर कूद जाते है तब उसे यमुना से बाहर जाने का इशारा करते हैं । सृष्टि कर्ता, मदन मुरारी यमुना से
बाहर आकर कलिये के फण पर नृत्य करते हैं कवि ने बड़े भाव से कन्हैया के नृत्य का चित्रण
किया है । कवि कहता है कन्हैया कमर पर हाथ रख ठुमक-ठुमक कर अपनी ही तान पर नाच रहे हैं ।कान्हा जी का नाच देख कर कैलाश वासी त्रिपुरारी भी मगन हो
नाच उठते हैं। यह मनभावन दृश्य देख देव, सुर, नर, नाग, मुनि अपना चित प्रसन्न कर रहे हैं । उन्हें देख यमुना जी के तट पर खड़े गोकुलवासी
आनंदित हो नाचने लगते हैं। माँ अपने लाल की बार-बार
बलैया लेती है । नाग कान्हा जी से आज्ञा लेकर सपरिवार प्रस्थान करता हैं।
मन
मांही प्रीत भर, गावै जो भी नर नार,
नोवूं
निधि पावै ,अष्ट सिद्धि अणपार जी।
जब
जब गावै जीव,मन मै उमंग होय,
कुमति
तो भाग जाए,सुमति सुधार जी ।
मान
तो बढैलों जग,जस घनूं पावै भारी,
रहत
न मन मांही, कुबध विचार जी।
चारण
कुमार गावै ,गाडन मनोज मुख,
जैतासर
गाँव मन, हरखै कुमार जी ।
इस
छंद के माध्यम से कवि कन्हैया जी की स्तुति गाने का फल कह रहा है कि जो नर नारी कन्हैया
जी की महिमा गाते है। यह सरस धार मन के
अंदर प्रीत भरती है। नव निधि, अष्ट सिद्धि से भंडार
भर जाते हैं। मन मे उमंग की तरंगें उठने लगती हैं।
कान्हा जी का नाम सुनते ही कुमति चली जाती है तथा सुमति का आगमन होता है । गिरधारी गोपाल की वंदना
से मन के कुविचार
नष्ट हो जाते हैं। गाँव जैतापुर का
कुमार, मनोज चारण
यह स्तुति गा कर आनंदित हो सुख प्राप्त कर रहा है। उनकी यह सुख मंगलदायक वंदना कलयुग में अमृत के समान है । हर शब्द से कान्हा
जी की मुरली के स्वर फूटते हुए प्रतीत होते है । इस पुस्तक को पढ़ना सौभाग्य प्रद है। हमारा मन
यमुना जी का प्रतीक है और कालिया नाग हमारे मन मे भरे ईर्ष्या, कपट
द्वेष, विकारों का प्रतीक है। अगर मन की यमुना में कान्हा जी
वास करेंगे तो मनुष्य जीवन सफल हो जाएगा । आज कालिया रूपी प्रदूषण से हमारी यमुना पुनः दूषित
हो रही है । इस कालिया का दमन करने के लिए हमें मन के अंदर बैठे कान्हा को पुनः पुकारना
होगा । अमर ताकि हम
एक बार फिर से इस कालिया रूपी नाग का दमन कर सकें। मुझे विश्वास है कान्हा
जी की यह महिमा हर घर में श्रद्धा और विश्वास से पढ़ी और गाई जाएगी। साहित्य के साथ- साथ यह धार्मिक स्तर भी बड़े
सम्मान की अधिकारी बनेगी। कवि मनोज चारण जी की यह छंद
यात्रा ऐसे ही अनवरत चलती रहे । उनके ऊपर कान्हा जी की करुणा ऐसे ही बनी रहे । हमें उनकी अन्य कृतियों को
पढ़ने का इंतजार रहेगा । अंत मे मनोज चारण को मेरी असीम मंगलकामनाएँ, सस्नेह शुभाशीष
। जय श्री कृष्णा
सुनीता
काम्बोज
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