लोक साहित्य जनमानस की सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति है । यह प्राचीन समय से मौखिक रूप में प्रचलित है । परन्तु आज कुछ लोकसाहित्य को लिपिबद्ध किया गया है । लोकसाहित्य सैदव भाव प्रधान रहा है इसमे मानव ह्रदय की गूँज सुनाई देती है । यह लोकगीत, लोकशिल्प, लोकनाट्य लोकसंस्कृति अनेक रूपों में रचा गया पंजाब का लोकसाहित्य बहुत समृद्ध और अद्वितीय है। पंजाब के लोकसाहित्य में लोककथाओं का एक बड़ा स्थान रहा है वास्तव में यही लोककथाएँ हमारी संस्कृति की वाहक भी रही हैं । पंजाबी लोककथाओं का संसार बहुत व्यापक और विस्तृत हैं । पंजाबी लोककथाएँ वे जन श्रुतियाँ हैं , जो एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को प्रदान करती आई हैं । यह लोककथाएँ प्राचीनकाल से लोगों के मनोरंजन के साथ-साथ जनमानस के लिए प्रेरणा का स्रोत्र भी रही हैं । प्रेम-प्रसंग, चमत्कारों की कथाएँ , योद्धाओं की गाथाएँ, संतों फकीरों व पावन गुरुओं की अमर गाथाएँ, आधात्मिक, सामाजिक राजनैतिक लगभग सभी विषयों को लोककथाओं ने छुआ है। प्रेम प्रसंगों में हीर-राँझा,सोहनी-महिवाल,लैला-मजनू, मिर्जा-साहिबा एवं ससि-पुन्नू जैसी पावन प्रेमकथाएँ भारत ही नहीं वरण सम्पूर्ण विश्व में अपनी पहचान रखती हैं इन कहनियों को सुन कर सुनने वालों की ऑंखें नम हो जाती हैं । इन प्रेमियों के अनेक किस्से लोगों की जुबान पर हैं । कुछ कहनियाँ हास्य व्यंग से लोगों को गुदगुदाती आई हैं यह लोककथाएँ छोटे बच्चे अपने दादा-दादी, नाना-नानी से सुनते आए हैं लोग दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद चौपालों व घरों में बैठकर एक दूसरे को सुनते और सुनाते आए हैं । ज्यादातर रात को ही लोककथाएँ सुनी-सुनाई जाती थीं ।अगर कोई बच्चा कभी दिन में कहानी सुनने की जिद करता, तो उसे उनके बड़े हमेशा यही बात कहते , कि अगर दिन में कहानी सुनोगे तो मामा घर का रास्ता भूल जाएगा। यह बात इसलिए बोली जाती थी, क्योंकि दिन भर खेती-बाड़ी के काम से फुर्सत नहीं होती और इस बात का बच्चों पर इतना प्रभाव होता कि बच्चे दिन भर साँझ ढलने का इन्तजार करते रहते । पंजाब में साँझ ढले ही स्त्रियाँ व पुरुष अपने रोजाना के कार्य निपटा लेते और सभी एक साथ खटिया पर बैठ कर लोककथाओं का आनंद लेते अगर घर में कोई मेहमान आता तो अक्सर उसे ही कहानी सुनाने का अवसर दिया जाता, ताकि और नई कहानियाँ सुनने को मिले यह कथाएँ अद्भुत प्रवाह में बहती और सुनने वाले बड़े मंत्रमुग्ध होकर इनको सुनते ।इस तरह बिन पैरों के ये लोककथाएँ समस्त पंजाब के गाँवों एवं नगरों तक पहुँचती आई हैं । लोककथा कहने का एक बड़ा नियम यह भी होता है कि कहानी सुनने वाला “हुँकारा” भरे । “हूँ” की ध्वनि से ये हुँकारा भरा जाता है सर्दियों में लकड़ियाँ जलाकर सब लोग आग के चारों तरफ बैठ जाते साथ-साथ कच्चे आलू व छलियाँ (मक्का ) भूनकर खाते और इन कथाओं का आनन्द लेते । मेरे बचपन की हल्की यादों में आज भी इन लोककथाओं की खुशबू समाई हुई है । नई पीढ़ी के नन्हे हाथों को मोबाइल पर गेम खेलते देखती हूँ, तो ऐसा लगता जैसे हमारी लोककथाएँ बुहे (दरवाजे )के पीछे से बचपन को देखकर उदास हो रही हैं ।लोककथाओं का अस्तित्व आज भी कायम है । कुछ लोककथाएँ सच्ची घटनाओं पर आधारित होती हैं और कुछ काल्पनिक होती हैं। त्योहारों के पीछे अनेक लोककथाएँ प्रचलित हैं। लोहड़ी पर्व को दुल्ला भट्टी वाले के साथ जोड़ा जाता है। कहा जाता है दुल्ला भट्टी वाला मुगल काल में गाँव पिंडी भट्टिया (पंजाब ) में पैदा हुआ था। उस समय लड़कियों को गुलाम बनाकर शक्तिबल से अमीर लोगों को बेच दिया जाता था । सुन्दर दास नाम के एक किसान की दो बेटियाँ थी। जिनका नाम सुन्दरी व मुंदरी था । किसान अपनी बेटियों का विवाह अपनी मर्जी से अच्छे घर में करना चाहता था; परन्तु उन लड़कियों के प्रति वहाँ के नम्बरदार की नीयत ठीक नहीं थी। वह उन लड़कियों से शादी करना चाहता था। इसलिए सुन्दरदास ने दुल्ला भट्टी वाले से अपने मन की चिंता जाहिर की। दुल्ला भट्टी वाले ने नम्बरदार के खेतों में आग लगाकर उन दोनों लड़कियों का विवाह उनकी इच्छा से सम्पन्न करवाया। तब से वह पंजाब का नायक बन गया ।
सावन में आने वाली तीज व रक्षाबंधन जैसे त्योहारों से अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हैं। प्रचलित लोककथाओं की गिनती यहाँ कह पाना सम्भव नहीं । बहादुर जट्टी ,गुणवंती कुड़ी , नूण मिर्च , पंच फूलों दी रानी, मिरासी, चोर चत्रा आदि अनेक लोककथाएँ आज भी कुछ बुजुर्गों की यादों के तहखाने से निकलकर आई हैं। । कुछ लोककथाएँ बहुत लम्बी होती व अनेक पात्र होते । लम्बी कथाएँ सुनाने वाले अभ्यस्त व्यक्ति उसे दो-तीन रात में किस्तों में सुनाता। लम्बी लोककथाएँ किसी उपन्यास से कम नहीं होती । कुछ लोककथाएँ हास्य रस से भरी हैं । हास्य व्यंग से परिपूर्ण किस्से जनमानस को प्रफुल्लित कर मन हल्का कर देते ।
इन लोककथाओं का उदय कब और कहाँ हुआ, इसका साक्ष्य दे पाना बहुत कठिन है। शायद यह सृष्टि के उदय के साथ ही हुआ होगा । जिस रूप में लोककथाएँ आरंभ हुई । उनमें कुछ न कुछ परिवर्तन हमेशा होता रहा । कई बुद्धिजीवी इन कथाओं में कुछ नया किस्सा जोड़कर और रोचक बना देते हैं। इन कहानियों में निरंतर बदलाव ही इन्हें हमेशा निखारता रहा है। एक बात अपने स्वयं के अनुभव से कहना चाहती हूँ कि एक ही कहानी को अगल- अगल व्यक्ति से सुनने पर अलग-अलग अनुभूति होती हैं कुछ लोग इन कथाओं को इस तरीके से सुनाते कि जैसे हम कोई फिल्म देख रहे हों। इन कथाओं का एक हिस्सा पहेली बूझना भी है, जो दिमागी कसरत के साथ-साथ जिज्ञासा भी बढ़ाता है ।
कुछ बुजुर्गों से मैंने कुछ लोककथाएँ सुनी। मैं यहाँ अवश्य बाँटना चाहूँगी कहानी कुछ इस तरह है ।
शहर में एक राजा था,जिसे नींद नहीं आती थी ।उसने बहुत से हकीमों से इलाज करवाए , सर में तेल मालिश व अनेक उपाय किए; परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ। उसे किसी ने सलाह दी कि अगर कोई आदमी उन्हें कहानी सुनाए, तो सुनते-सुनते उन्हें नींद आ जाएगी ।यह सुन कर राजा ने मुनादी करवाई कि अगर कोई मुझे कहानी सुनाकर सुला दे, तो मैं उसको इनाम दूँगा । अगर वह मुझे नहीं सुला पाया ,तो उस आदमी का काला मुँह करके गधे पर बिठाकर शहर में घुमाऊँगा । इनाम के लालच में राजा को दूर –दूर से लोग कहानी सुनाने आए , पर किसी ने आठ कहानियाँ सुनाई,किसी ने दस परन्तु कोई सफल नहीं हुआ। राजा ने सबका मुँह काला करके गधे पर बिठाकर सारे शहर में घुमाया ।इस बात की चर्चा दूर- दूर तक थी । जब एक मिरासी ने यह बात सुनी ,तो सुनकर कहा कि मैं राजा को सुला सकता हूँ । मिरासी लोग बहुत चतुर होते हैं । वे गाना बजाना बहुत जानते हैं । वह राजा के पास गया और बोला मैं आज रात को आपको ऐसी कहानी सुनाऊँगा जिससे आपको नींद आ जाएगी; लेकिन एक शर्त है -आपको कहानी सुनकर “हूँ” कहकर हुंकारा भरना होगा । उसने रात को कहानी सुनानी शुरू की , मिरासी ने कहा जब मेरे बाप के बाप के बाप जिन्दा थे ,तब मेरे बाप के बाप के बाप जंगल घूमने गए। साथ में मेरे बाप के बाप भी थे। उस जंगल में एक हजार पेड़ थे। एक-एक पेड़ पर सौ-सौ पिंजरे लटके हुए थे । एक-एक पिंजरे में दस-दस पक्षी थे । राजा हुंकारा भरता रहा और बोला फिर क्या हुआ । मिरासी बोला मेरे बाप के बाप के बाप ने सोचा क्यों न इन पंछियों को आजाद करके पुण्य प्राप्त किया जाए। फिर मेरे बाप के बाप के बाप ने एक पिंजरा खोला और एक पक्षी उड़ा दिया फुर्र....... फिर दूसरा पक्षी उड़ा दिया फुर्र...... फिर तीसरा पक्षी उड़ा दिया फुर्र ..... मिरासी ऐसे ही पक्षी और पिंजरे गिनता रहा । कहानी सुनते-सुनते राजा को नींद आ गई । जब राजा सुबह जगा, तो मिरासी कहानी सुना रहा था। राजा बोला -अभी तक कहानी पूरी नहीं हुई ? तब मिरासी बोला अभी पाँच सौ पिंजरे बाकी हैं । राजा मिरासी की चतुरता से अति प्रसन्न हुआ व उसे बहुत धन दिया ।
इन लोक कथाओं में राजा -रानी ,जंगल के पशु -पक्षी , दानव व उसकी बेटी ,राजकुमार , बूढी अम्मा, किसान ,जादूगर ,बाजीगर , आदि मुख्य किरदार होते हैं । इतिहास से जुड़ी अनेक घटनाओं व प्राचीन राजाओं की शौर्य गाथाओं को कहानी के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है । देश की आजादी के दौरान भगतसिंह ,ऊधमसिह राजगुरु ,सुखदेव जैसे अनेक वीरों की गाथाओं एवं उनके महान बलिदानों को जन-जन तक इन लोक कथाओं ने ही पहुँचाया । ये कथाएँ हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है और हमेशा रहेगी । बेशक आज कुछ लोककथाएँ लुप्त हो रही हैं। परन्तु कुछ प्राचीन किस्से कथाएँ अनायास ही जुबान पर आ जाते हैं। यह लोक परम्परा हमारी नई पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी से जोड़ कर रखने का कार्य करती हैं और पुरातन संस्कृति को जिन्दा रखती हैं ।पंचतन्त्र की कहानियों ने पुस्तकों के रूप में घर-घर पहुँच कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया हैं । “एक था राजा” ये शब्द हमको हमेशा इन लोककथाओं के साथ जोड़े रखते हैं आज भागदौड भरी जिन्दगी में अभिभावकों के पास इतना समय नहीं हैं कि वह अपने बच्चो के साथ बैठकर कुछ समय बिता सके और यह विरासत में मिली अनमोल धरोहर इन लोक कथाओं से परिचित करवा सकें । आज के इस परिवेश में पहले की तरह वह संयुक्त परिवार भी नहीं रहे,जिसमे दादा-दादी, नाना-नानी अपने नातियों को ये कहानियाँ किस्से सुनाया करते थे । जीवन की नदिया के एक किनारे से दूसरे किनारे तक का हर बाँध इन्सान उन्नति का नाम देकर तोड़ता जा रहा है । इस आपाधापी में बहुत कुछ पीछे छूटता जा रहा है । साहित्य जगत के कुछ बुद्धिजीवी इस बाँध को पुनः जोड़ने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं । आज इस मशीनी युग में बच्चे जिस दिशा में अग्रसर हो रहे हैं उसका एक कारण रिश्तों में बढ़ती दूरियाँ और एकांत है जिससे वह जमीन से जुड़ी बातों और लोक परम्पराओं से अछूते रह गए हैं आज घटने वाली घटनाएँ कल किस्सों के रूप में आगे से आगे पीढ़ियों तक जाएगी । यही हमारी नई लोककथाओं का आधार होगा ।
सुनीता काम्बोज
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