सब ताल तलैया सूख गए
न कमल रहे न मीन रही
तृष्णा मन के सिंहासन पर
जीवन भर ही आसीन रही
विश्वास किया कच्चे घट पर
अब फूल नहीं उगते तट पर
अनुराग की चादर ओढ़े मैं
अनुभव के मोती बीन रही
बिन रुके निरन्तर चलता है
जाने क्या अंदर चलता है
जाने ये किसकी सत्ता है
किससे साम्राज्य छीन रही
फैली ये मूक उदासी है
अब नदिया प्यासी प्यासी है
धरती पर पैर जमाये हैं
बेशक ही मैं परहीन रही
सुनीता काम्बोज©
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