किसी पुस्तक में पढ़ी एक पँक्ति
सदैव तैरती मेरे मन में
कि- अगर मिटाना हो कोई देश
समाप्त करनी हो किसी देश की संस्कृति
अगर धूल करना हो, युग-युगांतर का ज्ञान
तो केवल एक ही निदान
सबसे पहले
मिटा दो उसकी भाषा
स्वयं चली आएगी निराशा
क्योंकि -
एक भाषा ही है
जो देती पहचान
कि हम अज्ञानी हैं या महान
हम किन विभूतियों की है सन्तान
हमारे साथ यही तो घटा
नवयुग जा रहा परम्पराओं से कटा
मन-मस्तिष्क पर ऐसा किया अघात
अपनी भाषा लगने लगी ओछी
और दूसरी भाषाओं में
दिखाई देने लगी कुछ बात
किसी भाषा से कोई अनबन नहीं मेरी
क्योंकि सभी है सरस्वती माँ का उपहार
परन्तु
देश की उन्नति, ज्ञान, कला-साहित्य का
निज भाषा करती विस्तार
बदल दे तुम्हारे मन को, एक कविता
यह नहीं सम्भव
ऐसी कविताएँ कितनी पढ़ी
औऱ भुला दी
जब
हृदय की भावनाएँ
बनेगी क्रांतिकारी
तब होगा नया उजाला
जागृत होगा जब देश-प्रेम
तब भाषा पर लिखी कविता की
होगी नहीं आवश्यकता
तब तक रहेगी लेखनी प्रयासरत
जब तक मिलता नहीं निज पथ
सुनीता काम्बोज
बढ़िया लिखा सुनीता जी !
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