Tuesday, December 12, 2017

सरसी छंद

सुनीता काम्बोज 







सरसी छंद

शिल्प बिना भी लगे अधूरी ,भावों बिन बेजान
कविता में तो उतर गए हैं, सब दिल के अरमान

मधुर भाव के मोती लेकर,भरना इसकी नींव
तब ही छू पाती ये दिल को ,हो जाती संजीव

रस इस गति यति से करना,तुम इसका श्रृंगार
अलंकार से इसे सजाकर,देना जरा सँवार

शब्द पिरोना मोती जैसे, बनता सुन्दर हार
यौवन इस पर आएगा जब ,लेगी और निखार

उम्र ढले पर भी निखरेगा, कंचन जैसा रूप
जाने क्या क्या निकलेगा ,ये मन भावों का कूप

बीज ह्रदय में उगता इसका,फिर होता विस्तार
कोरा पन्ना रण की धरती,कलम बनी हथियार

थोड़े से ही शब्दों में ये,कह देती इतिहास
जो भी इसको गले लगाता ,करती नहीं निराश

वीरों की गाथाएँ गाती, देती है सन्देश
इसे घटाओं जैसे लगते ,हैं गौरी के केश

विचलित मन की पीड़ा हर कर, मन में भरे उमंग
 इसने देखी इसने जीती ,जीवन की हर जंग

पीड़ा से भी भर जाती है,कभी बँधाती धीर
कभी ये चंचल सी लगती है,लगती है गम्भीर

सुनीता काम्बोज 

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