Thursday, February 22, 2018

कृति : देह जुलाहा हो गई ( दोहा संग्रह)




कृति   :  देह जुलाहा हो गई दोहा -संग्रह)  
कवयित्री : सुशीला शिवराण
विधा  :  दोहा  छंद 
मूल्य   :   240.00 रुपए

प्रकाशक  : अयन प्रकाशन , 1/20 महरौली ,नई दिल्ली - 11 0 030 
दूरभाष- 9818988613
समीक्षक - सुनीता काम्बोज


"देह जुलाहा हो गई" दोहा संग्रह अपने शीर्षक की तरह बहुत प्रभावित करता है इसके सभी दोहे पढ़कर बहुत सुखद अनुभूति हुई  सुशीला जी की रचना शीलता अद्भुत है । वर्षों बाद दोबारा कलम थाम कर उन्होंने जो कमाल कर दिखाया वह प्रेरणादायक व सरहानीय है । उन्होंने दोहा छंद में जीवन के अनेक आयामों को देखा है नीतिदर्शनसांस्कृतिक चेतना,देश प्रेम,प्राकृतिक सौन्दर्य,राजनीति,भक्ति रस पर उन्होंने बहुत शानदार दोहे रचे हैं ।दोहों के प्रति सुशीला जी का समर्पण भाव देखकर लगता है कि यह दोहा संग्रह उन्हे साहित्य जगत में नई ऊँचाइयाँ प्रदान करेगा । संग्रह में अनेक विषयों पर दोहे लिखे गए हैं जो मन को मंत्रमुग्ध कर गए ।

मंचों पर तुम ये कवि !महको बनकर फूल फूल ।
कुसुमित शब्दों से हरोमन से दुख के शूल । ।

वर्तमान युग में  पथ से भटके  कवि वर्ग को सही मार्ग  अपनाने  का संदेश देता ये दोहा थोड़े शब्दों में गहरा अर्थ सेहजे हुए है । कम शब्दों में बड़ी बात कहना हीदोहा छंद का चमत्कार हैं ।

सर्व धर्म स्वभाव हीभारत का पैगाम ।
सबका मालिक एक हैभले अलग हैं नाम ।।

भारत सभी धर्मों का सम्मान करता है यही इस धरती के संस्कार है । कवयित्री भारत की पहचान और शान को प्रस्तुत करने में सफल रही है ।

लूले लंगड़े कायदे,अँधा है कानून ।
घोटालों का राज है,सच भूखा दो जून ।।

वर्तमान राजनीति और कानून की दशा बहुत गम्भीर है भ्रष्टाचार और घोटालों ने आम आदमी का  जीना मुश्किल कर दिया है । समाज के प्रति अपने दायित्व को निभाते हुए उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की है ।

बिन पानी बिन खाद केकैसे पनपे बेल ।
छूट गए रिश्ते सभी,खत्म हुआ सब खेल ।।

इस दोहे को पढ़कर ऐसा लगा जैसे मन की पीड़ा उभर कर दोहे के रूप में अंकित हो गई है । रिश्तों का दिन प्रतिदिन गिरता मान सम्मान एक दिन मानव की जिन्दगी वीरान कर देगा । गिरते मूल्यों को समेटने का कवयित्री का प्रयास अद्भुत है ।

तेरी पीड़ा का यहाँ,कौन करे अहसास ।
पत्थर के इस शहर में,कहाँ नमीं की आस ।।

शहर का  अकेलापन मानव का चैन छीनता जा रहा है । इस दौड़ में किसी के पास भी एक दुसरे के लिए समय नहीं है । मनुष्य की उसी पीड़ा को प्रकट किया है ।

खून पसीना एक करऊँची दी तालीम ।
बच्चे तो अफसर हुए ,अब्बा हुए यतीम ।।

माँ बाप बच्चो के लिए अपना सारा जीवन निछावर कर देते है परन्तु ओलाद पढ़ लिख कर माँ बाप को ही बोझ समझने लगती है । कवि ने समाज को दोहों के माध्यम से जो चेतावनी दी है अगर आज मानव ने अनसुना कर दिया तो एक दिन सब संस्कार धूल हो जाएगे फिर सिर्फ पछतावे के अलावा मनुष्य के पास कुछ शेष नहीं रहेगा ।

चाँद बिना कटती नहींसीली सीली रात ।
तारों से हो गुफ्तगूआँखों से बरसात ।।

विरह का दर्द बहुत कष्टदायक होता है । जुदाई की रातें और दिन दोनों ही बेचैनी से भरे होते हैं । एक विरहन का दर्द बयाँ करते दोहें प्रीत के अनेक रंग दिखाते हैं ।

जर्जर मेरी नाँव  है,भवँर कई मझधार ।
मुझे भरोसा राम कावो हैं खेवनहार ।।

कवयित्री की आस्था का प्रतीक ये दोहा विश्वास की उर्जा से परिपूर्ण है । हर कठिन डगर आशा और विश्वास से पार की जा सकती है उनके  दोहों में सुफियत का पैगाम है ।
नारी के मन की पीड़ा को और  नारी के भटकते कदमों पर बेटियों के प्रति समाज की मानसिकता को महसूस करके अपनी लेखनी से इस समाज को जगाने का सफल प्रयास किया है । कवयित्री सुशीला जी ने एक शिक्षक के रूप में समाज को  नई दिशा प्रदान करने के उपरांत साहित्य समाज में भी बहुत प्रभावशाली आगमन किया हैं । माँ को समर्पित उनका ये संग्रह बधाई का पात्र है । दोहा दुनिया में अपना संकलन लेकर आई कवयित्री पारम्परिक आस्था विश्वास की नई परिभाषा अंकित करती है । अंत में मैं कवयित्री को हृदयतल से हार्दिक बधाई देती हूँ और कवयित्री के उज्जवल भविष्य की कामना करती हूँ । आशा करती हूँ आप आगे भी अपनी लेखनी से साहित्य सेवा  करती रहेगी ।

मंगलकामनाओ सहित ।

सुनीता काम्बोज

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