Friday, July 30, 2021

मनोरम छंद

ये जमाना ढूँढती हूँ 
क्या खज़ाना ढूँढती हूँ 
हूँ मुसाफ़िर ये पता ,पर
मैं ठिकाना ढूँढती हूँ

इक अभी भी आरजू है
सिर्फ उसकी जुस्तजू है
पा लिया सब कुछ जहाँ में
पर न मिलता एक तू है
मैं ठहरने का जहाँ में 
इक बहाना  ढूँढती हूँ

जानता ये आसमाँ है
वो छुपा आखिर कहाँ है
सिर्फ मैं अनजान उससे 
ये हवा भी राजदाँ है
बीत कर जो जा चुका है 
वो फसाना ढूँढती हूँ

एकटक मैं देखती हूँ
दूर तक मैं देखती हूँ
हर तरफ वीरानगी
पर अचानक देखती हूँ
ढूँढती अंदर छुपा वो
जो तराना ढूँढती हूँ 

सुनीता काम्बोज©
           चित्र-साहिल काम्बोज©

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थके पंछी