Wednesday, December 13, 2017

सुनीता काम्बोज

काँटेदार झाड़ियाँ फैलीबहुत घना जग कानन है
तमस भरा है रोम- रोम मेंऐसा मन का आँगन है
ईर्ष्या के पत्ते डाली हैं,अहंकार के तरुवर हैं
काई द्वेष की जमी है इसमेंबगुलों से भरे सरोवर हैं
काँटे झूमते निंदा रूपी,घास फूस है जड़ता का
सर्प रेंगते बिच्छू खेलें बंजर सारे गिरवर हैं
जहरीली बेले फैली हैंन तुलसी न चंदन है
तमस--
लिप्सा के हैं मोर नाचतेतृष्णा के खग बोल रहे
करुणा, प्रेम दया, ममता भी सहमे- सहमे डोल रहे
मुक्त करूँ कैसे मैं इनकोनवयुग का निर्माण करूँ
छल की हाला को घन काले ,सच्चाई में घोल रहे
मद के पतझड़ की छाया है ,हीं वसन्त ,न सावन है
तमस----
जल जाएँगे इक पल में हीसच की आग लगा देना
फूल खिलाकर करुणा के तुम, गुलशन यह महका देना
पुष्प प्रेम के मुरझाए हैं ,फिर से उन्हें खिलाकर तुम
नेह-नीर से इन्हें सींचकरउजियारा फैला देना
क्यों बिन कारण ये उलझन है ,क्यों संशय की अनबन है
तमस----
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