Thursday, December 21, 2017

गीत- बेटियाँ


गीत- बेटियाँ


यही बेरंग जीवन में हमेशा रंग भरती हैं
सदा ही बेटियाँ घर के अँधेरे दूर करती हैं

है इनकी वीरता को ये ज़माना जानता सारा
ये शीतल-सी नदी भी हैं, ये बन जाती हैं अंगारा
ये तूफानों से लड़ती हैं, नहीं से लहरों डरती हैं
सदा ही बेटियाँ घर के अँधेरे दूर करती हैं

हमेशा खून से ये सींचती सारी ही फुलवारी
छुपा लेती हैं ये मन में ही अपनी वेदना सारी
ये सौ-सौ बार जीती हैं, ये सौ-सौ बार मरतीं हैं
सदा ही बेटियाँ घर के अँधेरे दूर करती हैं

हवाएँ राह में इनके सदा काँटे बिछाती हैं
मगर जो ठान लेती ये वही करके दिखाती हैं
ये मोती खोज लाती हैं जो सागर में उतरती हैं
सदा ही बेटियाँ घर के अँधेरे दूर करती हैं


सुनीता काम्बोज

Wednesday, December 13, 2017

महकी कस्तुरी- डॉ . ज्योत्स्ना शर्मा

समीक्षा
कवयित्रीडॉज्योत्स्ना शर्मा द्वारा रचित दोहा संग्रह "महकी कस्तूरी
सुनीता काम्बोज
दोहा पुरातन छंद है ।कम शब्दों में गहरा अर्थ प्रकट हो यही दोहे की विशेषता है ।छन्दों के उपवन में दोहा   गुलाब प्रतीत होता है जो रचनाकार को अपनी ओर आकर्षित करता है  । डॉज्योत्स्ना शर्मा  जी का दोहा संग्रह महकी कस्तूरी पढ़कर जो अनुभूति  हुई उसे शब्दों में ढालने का प्रयास किया है ।आज के परिवेश में मन की गहराई से दोहा गढ़ने वालों की सख्या बहुत कम है ।किसी छंद को रचने के लिए शिल्प पक्ष बहुत अनिवार्य है । परन्तु भाव पक्ष अगर कमजोर है हो तो  छंद निष्प्राण प्रतीत होते हैं। डॉ ज्योत्स्ना जी के दोहे शिल्प और भाव पक्ष  की दृष्टि में उत्तम हैं । दोहों में सुन्दर शब्द संयोजन से ऐसा लगता है , जैसे ठण्डी आहें भरते दोहे को संजीवन प्रदान कर दी हो । उनके गहन भावों ने मन को अभिभूत कर दिया ।
चाहें जीवन की सच्चाई हो या कान्हा का प्रेम ,राजनीति हो या प्रकृति के रंग,रिश्तों का  प्रेम  हो  संस्कार व मर्यादानारी का जीवन और त्योहारों के रंग ,इत्यादि सभी मनोभावों का बहुत संजीदा ढंग से दोहे के रूप में प्रतुतीकरण  किया है । कवयित्री के  मन के सुकोमल भावों में अदभुत आकर्षण है ।
जो रचना या छंद पाठक के ह्रदय के तारों को नहीं छू पाते उसे सार्थक रचना नहीं कहा जा सकता । कवयित्री ने माँ शारदे ,सद्गुरु की वंदना के साथ साथ  कलम को निरन्तर निडर हो चलने का संदेश दिया है ।
·       पदम आसना माँ सदा,करूँ विनय कर जोर ।
फिर भारत उठकर चलेउच्च शिखर की ओर ।।
·       इस बेमकसद शोर मेंकलम रही गर मौन ।
तेरे मेरे दर्द को ,कह पाएगा कौन ।।
हिन्दी के प्रति कवयित्री का स्नेह और सम्मान देखते ही बनता है । हिन्दी की पीड़ाऔर हिन्दी का गौरव गान  व देश प्रेम की भावना से भरे अनोखे दोहे इस पुस्तक की शोभा दोगुनी कर देते हैं-
·       कटी कभी की बेड़ियाँआजादी त्यौहार ।
फिर क्यों अपने देश में ,हिन्दी है लाचार ।।
·       एक राष्ट्र की अब तलकभाषा हुई ,न वेश ।
सकल विश्व समझे हमेंजयचन्दों का देश ।।
परिवार मनुष्य की शक्ति  है ।इस शक्ति और रिश्तों को सहेजने का प्रयास करते हुए कवयित्री ने दोहों के माध्यम से भटकते समाज को जो संदेश दिया वह प्रशंसनीय है ।माँ की ममता को यथार्थ करता ये दोहा अनुपम है -
·       माँ मन की पावन ऋचा ,सदा मधुर सुखधाम ।
डगमग पग सन्तान के,लेती ममता थाम ।।
·       खिलकर महकेगा सदा,इन रिश्तों का रूप ।
सिंचित हो नित नेह से,विश्वासों की धूप ।।
फागुन के रंग और राखी के पवित्र तार हो या इर्द की ख़ुशबू ,दीवाली की मिठास ,   कवयित्री की लेखनी ने सभी विषयों का  बखूबी चित्रण किया है ।
 कवयित्री ने जनमानस की स्थिति  को बड़ी गंभीरता से दर्शाया है ।  एक तरफ जहाँ दोहों में भावों की रसधार बहती है दूसरी तरफ पटाखों से बढ़ते प्रदूषण पर भी प्रहार किया है ।
·       इत हाथों में लाठियाँ ,उत है लाल गुलाल ।
बरसाने की गोपियाँनन्द गाँव के ग्वाल।।
·       जल्दी ले जा डाकिए ,ये राखी के तार।
गूँथ दिया मैंने अभी,इन धागों में प्यार ।।
·       साँस-साँस दूभर हुई ,धरती पवन निराश ।
छोड़ पटाखे छोड़ना ,रख निर्मल आकाश ।।
·       मेहनत करते हाथ को , बाकी है उम्मीद ।
रोज-रोज रोजा रहाअब आएगी ईद।।
 डॉ ज्योत्स्ना शर्मा जी ने दोहों में  नारी की पीड़ा ,त्याग ,कोमलता और नारी शक्ति को बड़ी सहजता से दोहों में प्रकट किया है । साथसाथ महाभारत की तस्वीर  व समाज में बढ़ते अपराध को बड़ी स्पष्टता से उकेरा है-
·       पिंजरे की मैना चकित ,क्या भरती परवाज़ ।
कदम-कदम पर गिद्ध हैं ,आँख गड़ाए बाज ।।
·       पावनता पाई नहीं,जन-मन का विश्वास ।
सीता को भी राम से,भेट मिला वनवास ।।
कवयित्री ने गाँव की महक,मौसम के अनेक रंगों को ,धरती की सुंदरता को  बड़ी खूबसूरती से दोहों में ढाला हैं।  इन दोहों पढ़ मन आनंद और उमंग से भर जाता है-
·       अमराई बौरा गईबहकी बहे बयार।
सरसों फूली सी फिरेज्यों नखरीली नैर ।।
·       टेसू ,महुआ,फागुनी,बिखरे रंग हज़ार।
धरा वधु सी खिल उठीकर सोलह सिंगार ।।

कवयित्री ने मानव को सावधान करने के लिए दूषित बयार ,अनाचार के ख़िलाफ़ क़लम द्वारा आवाज उठाई है। यही सच्चे लेखक का कर्तव्य भी है पर साथ -साथ  धीरज ,योग ,निष्काम कर्म करने पर भी बल दिया है-
·       माना हमने देश की ,दूषित हुई बयार।
वृक्ष लगा सद वृत्त केमहकेगा संसार
·       पग-पग पर अवरुद्ध पगपत्थर करें प्रहार।
निज पथ का निर्माण कर,बह  जाती जल-धार ।।
कवयित्री ने इंसानियत के धर्म को सबसे ऊँचा कहाँ है , अनुभव को सच्चा मार्गदर्शक बताया है इस संग्रह के सभी दोहों में नयापन नई ऊर्जा है । इन दोहों से कवयित्री की दूरदर्शिता  गहरी संवेदना सचेतना का परिचय दिया है
कुछ  शब्दों के प्रयोग ने  इन दोहों में चार चाँद लगा दिए जैसे हवा का खाँसना , श्रम की चाशनी , कोहरा द्वारा  खरीदना , ज़िद की पॉलीथीनदुआ का पेड़ , ये सब इन दोहों में ऐसे उपमान है जिन्हें पाठक पढ़कर नवीनता महसूस करता है । टिटुआ ,दीनदयाल के माध्यम से जनमानस का दर्द व्यक्त किया हैइन शब्दों का प्रयोग से दोहे ह्रदय तक पहुँचता प्रतीत होता है ।
·       सूरज गा विकास का , हुए विलासी लोग ।
हवा खाँसती रात दिनविकट लगा ये रोग ।।
·       मेरे घर से आपकायूँ तो है घर दूर।
मगर दुआ के पेड़ हैंछाया है भरपूर ।।
·       दरवाजे की ओट में टिटुआ खड़ा उदास।
जाए खाली हाथ क्याअब बच्चों के पास ।
जीवन की आसप्रेरणा ,सन्देश से भरे ये दोहे मुझे ये समीक्षा लिखने को प्रेरित कर गए । डॉज्योत्स्ना जी को मेरी   अनन्त शुभकामनाएँ हार्दिक बधाई । कवयित्री का पहला हाइकु संग्रह भी बहुत लोकप्रिय रहा और इस दोहा संग्रह महकी कस्तूरी को पढ़कर मुझे पूर्ण विश्वास  है , ये संग्रह जन मानस के ह्रदय में अवश्य अपना स्थान बनाएगा ।मैं डॉ . ज्योत्स्ना शर्मा जी के सफल भविष्य की कामना  करती हूँ । महकी कस्तूरी दोहा संग्रह आपकी साहित्यिक यात्रा को नई  ऊँचाई प्रदान करेगा।ईश्वर ने आपको ये लेखनी का वरदान दिया है उसके द्वारा आप ऐसे ही साहित्य की रौशनी फैलाती रहेंगी यही आशा है।शीघ्र ही अन्य विधाओं में भी आपकी कृतियाँ पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा ।
इस दोहा संग्रह को पढ़कर मेरे मन में ये  भाव उपजे -महकी कस्तूरी की महक में मेरे मन को भी महका दिया-
·       महकी कस्तूरी भरे , मन में एक उमंग ।
इन दोहों मे पा लिए ,  मैंने सारे रंग ।।       
·       महकी कस्तूरी तभी ,पाया ये उपहार ।
ज्योत्स्ना जी भाव ये,  छूते मन के तार ।।
·       महकी कस्तूरी मुझे,देती परमानंद ।
मन की हर इक बात को ,कहता  दोहा छंद ।।
-0-
महकी कस्तूरी  ( दोहा संग्रह):कवयित्रीडॉज्योत्स्ना शर्मा ,मूल्य-180:00 रुपये
पृष्ठ-88,संस्करण :2017 ,प्रकाशकअयन प्रकाशन , 1/20 महरौली नई दिल्ली-110030



गीत

रक्षा बंधन -गीत

ड़ा निश्छल ,बड़ा पावन ,बहन और भाई का बंधन

तुझे ही देखके लगता कि जैसे आ गया बचपन



कलाई पर तुम्हारी मैं ये अपना प्यार बाँधूँगी

तू चमके चाँद -सूरज -सा यही वरदान माँगूँगी

जिए जुग-जुग मेरा भैया ,मिले जग की सभी खुशियाँ

तेरे ग़म भी मुझे दे दे मैं रब से ये ही बोलूँगी



नजर तुझको न लग जाए लगा दूँ आँख का अंजन

तुझे ही देखके लगता कि जैसे आ गया बचपन



मेरी आँखों का सूनापन नही वो देख पाता है

मेरी आँखों में आँसू हो तो खुद ही छटपटाता है



शरारत से अभी भी वो नही यूँ बाज है आया

बड़ा होकर भी खुद को वो सदा छोटा बताता है



बहन तेरी ये कुमकुम- सी ये भाई है मेरा चन्दन

तुझे ही देखके लगता कि जैसे आ गया बचपन



हो मन उसका अगर भारी, पिता माँ से छिपाता है

किसी को भी नहीं कहता ,मुझे आकर बताता है



सुनीता डाँट देती है तो मुँह अपना फुला लेता

अगर मैं रूठ जाती हूँ ,मुझे अक्सर मनाता है



उसी की ही महक से तो मेरा घर भी लगे उपवन

तुझे ही देखके लगता कि जैसे आ गया बचपन

सुनीता काम्बोज 

भाई-बहन का अनमोल स्नेह

भाई-


पिताजी की छवि दिखती वो माँ का रूप लगता है

मेरा भैया -सा भाई तो नसीबों से ही मिलता है



कभी लगता गुरु- सा वो, कभी मेरी सहेली सा

मेरी खुशियाँ रहे क़ायम, दुआ वो रोज़ करता है


ये जिम्मेदारियाँ सारी निभाता वो सदा घर की

है सारी ही उम्मीदों पर ,खरा हरदम उतरता है


तिलक तुझको लगा दूँ मैं ,आ तेरी आरती करके

निग़ाहों में मुझे उसकी सदा ही फ़र्ज़ दिखता है


सुनीता की दुआएँ हैं उसे कोई न दुख आए

मुझे तो चैन मिल जाता ,वो जब फूलों-सा हँसता है

सुनीता काम्बोज

(चित्र गूगल से साभार )


सार छंद

औरों की खुशियों में (सार या ललित छंद )
सुनीता काम्बोज

(चित्र गूगल से साभार )


एक बार गर गई, लौटकर,आती नहीं जवानी
माटी में माटी मिल जाए,
फिर पानी में पानी ।
सबको इक दिन जाना होगा,जो दुनिया में आया
हँसकर रोकर 
हर मानव ने,जीवन का सुर गाया ।
ज्ञानी है कोई इस जग में, है कोई पाखण्डी
कोई सरल बड़ा ही मिलता,कोई बड़ा घमण्डी ।
इस दुनिया में कुछ लोगों को ,अपना आप सुहाता
जो उनकी अच्छाई गिनता ,केवल वो ही भाता ।
रंग- बिरंगे सजे खिलौने ,दुनिया लगती मेला
कोई जीता भीड़- भाड़ में,कोई रहा अकेला ।
सारा जीवन धन के पीछे ,फिरते हैं बौराए
जितना मिलता कम पड़ता है, हाय हाय! चिल्लाए ।
औरों की खुशियों में खुशियाँ , जिसने ढूँढी ,पाई
रहता नहीं कभी वह प्यासा, मिट जाती तन्हाई ।
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सुनीता काम्बोज

काँटेदार झाड़ियाँ फैलीबहुत घना जग कानन है
तमस भरा है रोम- रोम मेंऐसा मन का आँगन है
ईर्ष्या के पत्ते डाली हैं,अहंकार के तरुवर हैं
काई द्वेष की जमी है इसमेंबगुलों से भरे सरोवर हैं
काँटे झूमते निंदा रूपी,घास फूस है जड़ता का
सर्प रेंगते बिच्छू खेलें बंजर सारे गिरवर हैं
जहरीली बेले फैली हैंन तुलसी न चंदन है
तमस--
लिप्सा के हैं मोर नाचतेतृष्णा के खग बोल रहे
करुणा, प्रेम दया, ममता भी सहमे- सहमे डोल रहे
मुक्त करूँ कैसे मैं इनकोनवयुग का निर्माण करूँ
छल की हाला को घन काले ,सच्चाई में घोल रहे
मद के पतझड़ की छाया है ,हीं वसन्त ,न सावन है
तमस----
जल जाएँगे इक पल में हीसच की आग लगा देना
फूल खिलाकर करुणा के तुम, गुलशन यह महका देना
पुष्प प्रेम के मुरझाए हैं ,फिर से उन्हें खिलाकर तुम
नेह-नीर से इन्हें सींचकरउजियारा फैला देना
क्यों बिन कारण ये उलझन है ,क्यों संशय की अनबन है
तमस----
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थके पंछी